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________________ अहिंसा का मान-दण्ड ८६ पहले भी थीं, आज भी मौजूद हैं, और शायद भविष्य में भी रहेंगी। कुछ भी हो, यह प्रश्न गम्भीरता से विचारने योग्य है । अब तक के विवेचन से एक नई चीज प्रकाश में आई कि-जब सभी जीव समान हैं तो उनकी हिंसा भी समान होनी चाहिए । उनमें से किसी की हिंसा कम, और किसी की ज्यादा कैसे हो सकती है ? इस तर्क से यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि यदि सब जीवों की हिंसा समान है तो फिर कोई कम हिंसक और कोई अधिक हिंसक क्यों कहलाता है ? यदि कहलाता है, तो आखिर उसका क्या कारण है ? इस नये प्रश्न का एक नया हल निकाला गया है । वह यह है कि जहाँ जीव ज्यादा मरेंगे, वहाँ ज्यादा हिंसा होगी, और जहाँ कम जीव मरेंगे, वहाँ कम हिंसा होगी। जब इस मान्यता को आश्रय दिया गया तो जीवों की गिनती शुरू हो गई। जब जीवों की गिनती शुरू हो गई तो विभिन्न प्रकार के नएनए तर्क भी पैदा होने लगे । यथा-एक आदमी भूखा-प्यासा आपके दरवाजे पर आया है, वह प्यास से छटपटा रहा है और मरने वाला है । यदि आप उसे एक गिलास पानी दे देते हैं तो उसके प्राण बच सकते हैं । किन्तु वहाँ हिंसा की तरतमता का प्रश्न उठ खड़ा होता है। एक तरफ पानी के पिलाने से केवल एक जीव बचता है, किन्तु दूसरी तरफ अनेक जीव मरते हैं ? क्योंकि पानी की एक बूंद में असंख्यात जीव हैं। पानी के पी लेने पर वे सब मर जाते हैं । इस प्रकार केवल एक जीव बचाया जा सका, और उसके पीछे असंख्यात जीव मारे गये । फिर यहाँ धर्म कैसे हुआ ? और पुण्य कैसे सम्भव होगा ? यह तो वही बात हुई कि एक समर्थ की तो रक्षा कर ली गई; किन्तु उसके पीछे असंख्य असमर्थों को मार दिया गया। इस प्रकार जीवों को गिन-गिन कर हिंसा की तरतमता देखी जाती है । क्या सचमुच जैनधर्म का यही दृष्टिकोण है कि जीवों को गिन-गिन कर हिंसा का हिसाब लगाया जाय ? जीवों को गिन-गिन कर हिंसा और अहिंसा का मापक तैयार करना जैन-धर्म को इष्ट नहीं है । जब आगमों की पुरानी परम्परा का अध्ययन करेंगे तो आपको विदित होगा कि जैनधर्म जीवों की गिनती नहीं करता। वह तो केवल भावों को ही गिनता है। वह संख्या के बाहरी स्थूल गज से हिंसा को नहीं नापता। वह तो भावनाओं के सूक्ष्म गज से ही हिंसा की न्यूनता और अधिकता को नापता है। भाव-हिंसा और द्रव्य-हिंसा के प्रकरण में तंदुल-मत्स्य का शास्त्रीय उदाहरण दिया जा चुका है। बेचारा तंदुल-मत्स्य एक भी मछली को नहीं मार सकता, फिर भी वह घोर से घोर हिंसा का भागी बन जाता है। यदि अधिक जीवों की हिंसा ही बड़ी हिंसा का कारण होती तो शास्त्र हमारे सामने तंदुल-मत्स्य का उदाहरण प्रस्तुत न करते । परन्तु वास्तव में ऐसा है नहीं। यह सिद्धान्त जैन-धर्म का नहीं है । यह तो हस्तीतापसों की मनगढन्त मान्यता है । १ हस्तीतापसों के लिए देखिए, सूत्रकृताङ्ग सूत्र और उसकी टीका-२, ६, ५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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