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________________ ८८ अहिंसा-दर्शन योग से ही हिंसा की निष्पत्ति होती है। ऐसी स्थिति में स्वभावतः यह प्रश्न उपस्थित होता है कि सब हिंसाएँ एक ही श्रेणी की होती हैं या उनमें भी कुछ अन्तर है ? यदि जीवन में होने वाली समस्त हिंसाएँ एक ही श्रेणी की होती हैं, तब तो शाक-सब्जी का खाना और मांस का खाना एक ही श्रेणी में होना चाहिए था ? परन्तु ऐसा नहीं है । यदि ऐसा नहीं है और हिंसा में वस्तुतः किसी प्रकार का तारतम्य है; अर्थात् कोई हिंसा बड़ी है और कोई छोटी है--तो इस वर्ग-भेद का आधार क्या है ? कौन-से गज से हिंसा का बड़ापन और छोटापन नापना चाहिए ? क्या मरने वाले जीवों की संख्या की अल्पता पर ही हिंसा की अल्पता; और अधिकता पर ही हिंसा की अधिकता निर्भर है ? अथवा जीवों के शरीर की स्थूलता और सूक्ष्मता पर हिंसा की विपुलता और न्यूनता अवलम्बित है ? अथवा हिंसक की हिंसामयी मनोवृत्ति की तीव्रता और मन्दता पर हिंसा की अधिकता और न्यूनता आश्रित है ? आखिर वह कौन-सा मापक है, जिससे हम हिंसा को सही तरीके से नाप सकें ? ___ कुछ लोग कहते हैं--"पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति के जीव भी तो जीव ही हैं । उनमें भी प्राण हैं और उनको भी जीने का हक है। यदि करुणा की भाषा में कहा जाए तो वे बेचारे भी जिन्दगी रखते हैं, किन्तु मूक हैं । शायद इसीलिए आपकी आँखों में उनका मूल्य नहीं है ? और द्वीन्द्रिय से लगा कर पंचेन्द्रिय तक जितने भी बड़े-बड़े प्राणी हैं, उन्हीं की जिन्दगी का आप मोल समझते हैं । इसका अर्थ तो यह हुआ कि जो मूक शिशु के समान बेचारे गरीब हैं, जो अपने आप में कुछ सामर्थ्य नहीं रखते हैं और जो अपनी रक्षा करने के लिए स्वयं योग्य नहीं हैं, ऐसे एकेन्द्रिय प्राणियों की हिंसा कम मानी जाएगी। जो पंचेन्द्रिय हैं, समर्थ हैं, बोल सकते हैं, उनकी हिंसा बड़ी मानी जाएगी ? यह सिद्धान्त ठीक नहीं है। संसार में सब जीव बराबर हैं, क्या एकेन्द्रिय और क्या पंचेन्द्रिय । हिंसा का एकमात्र आधार जीव है, जीवों में छोटे और बड़ेपन का वर्ग-भेद नहीं है।" प्रायः हमारे बहुत-से साथी ऐसा कहते हैं कि-"यह जो आपका विचार करने का ढंग है कि एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव की हिंसा में तारतम्य है, और आप उनकी हिंसा को कम और अधिक मानते हैं, यह तो शास्त्र-सम्मत नहीं है। एकेन्द्रिय की हिंसा भी हिंसा है । जब दोनों प्रकार की हिंसाएँ वास्तव में हिंसा की दृष्टि से बराबर हैं तो कमती-बढ़ती कैसी हो गई ? सभी हिंसाएँ एक जैसी होनी चाहिए।" __ कदाचित् इन्हीं विचारों के फलस्वरूप राजस्थान में एक नए पंथ का जन्म हुआ है। यों तो उस पंथ के जन्म लेने के और भी अनेक कारण सुने जाते हैं, परन्तु यहाँ उन सबके साथ उलझना आवश्यक नहीं। मनुष्य को विचारों का द्वन्द्व ही प्रायः धोखा देता है। मूल में कोई भी कारण रहा हो, किन्तु हिंसा और अहिंसा की व्याख्याओं ने भी कुछ कम धोखा नहीं दिया है और उन्हीं व्याख्याओं के कारण भ्रान्तियाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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