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अहिंसा की कसौटी
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प्याला चढ़ा लेता है और अपनी जीवन-गाड़ी को ऐसी उन्मुक्त एवं तीव्र गति से चलाता है कि दूसरों के जीवन कुचले जा रहे हैं, वे मर रहे हैं, परन्तु इसकी उसे तनिक भी चिन्ता नहीं है; क्या वह व्यक्ति कभी सच्चा मनुष्य हो सकता है ? ।
गाड़ी को तेज रफ्तार में छोड़ने पर कोई भी दुर्घटना या खतरा हो सकता है, अतः उसे ब्रेक लगा कर चलाना चाहिए। जिस मोटर गाड़ी में ब्रेक न लगा हो, क्या उस गाड़ी को चलाने का अधिकार मिल सकता है ? बिना ब्रेक की गाड़ी चलाना दण्ड नीय है । जीवन की गाड़ी में भी संयम का ब्रेक लगना चाहिए । संयम का ब्रेक लगने पर जीवन-गाड़ी स्वयं भी सुरक्षित रहती है और दूसरों को भी सुरक्षित रखती है।
कोई ड्राइवर सोच-समझ कर मोटर चला रहा है, नशा उसने नहीं किया है और दिमाग को तरोताजा रख कर चला रहा है, और मोटर को जैसे-तैसे मरते-मारते ठिकाने पहुँचा देना मात्र ही उसका लक्ष्य नहीं है। बल्कि वह सड़क पर किसी को किसी प्रकार का नुकसान किए बिना सकुशल ठिकाने पहुँच जाता है, तो वही सच्चा
और होशियार ड्राइवर है । अतएव जब वह चलाता है तो दाएं-बाएँ बचा कर चलाता है । फिर भी मनुष्य होने के नाते उससे कभी भूल हो भी जाती है । अस्तु, बचाने का पूरा प्रयत्न करने पर भी कोई टकरा ही गया, या जब कोई सामने आया और उसने ब्रेक भी लगाया, किन्तु ब्रेक फेल हो गया और गाड़ी नहीं रुकी, तो ऐसी स्थिति में यही कहा जा सकता है कि वह ड्राइवर उस हिंसा के पाप का भागी नहीं है।
हर एक आदमी जीवन की गाड़ी ले कर चल रहा है। मोटरगाड़ी को घर से बाहर न निकाल कर केवल घर के गैरेज में बन्द कर देना ही उसका सही उपयोग नहीं है। मोटर का सही उपयोग तो मैदान में चलाना है, किन्तु चलाने का उचित विवेक रहना चाहिए। इसी प्रकार जीवन में भी मन को बन्द करके सुला देने से जीवन की सारी हरकतें बन्द कर देने से और शरीर को एक माँसपिण्ड बना कर किसी एक कोने में रख छोड़ने से तो कोई परिणाम नहीं निकल सकता । जीवन को प्रतिक्षण गतिशील रहना चाहिए । गतिहीन जीवन जीवन नहीं, बल्कि जीवन की जिन्दा लाश है। मुर्दे की तरह निष्क्रिय पड़े रहना, क्या कोई धर्म का लक्षण है ?
जैनाचार्य कहते हैं--जीवन की मोटर को चलाने की मनाही नहीं है। यदि गृहस्थ है तो उस रूप में गाड़ी को चलाने का हक है, और यदि साधु है तो भी चलाने का हक है । किन्तु चलाते वक्त उसे प्रमादी या असावधान न बनना चाहिए मस्तिष्क को साफ और तरोताजा रखते हुए सदैव यह ध्यान रखना चाहिए कि जीवन की यह : गाड़ी किसी से टकरा न जाए; व्यर्थ या अनुचित ढंग से किसी को कुछ नुकसान न पहुंचने पाए । इन सब बातों को ध्यान में रख कर ही जीवन की गाड़ी चलानी चाहिए, फिर भी कदाचित् भूल हो जाए और हिंसा की दुर्घटना हो जाए तो ऐसा होना बहुत हद तक हो सकता है । किन्तु अन्धे बन कर चलाने पर यह कभी भी क्षम्य नहीं हो सकता।
८ गीता।
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