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अहिंसा-दर्शन
अहिंसा की एक कसौटी : विवेक
एक बार गणधर गौतम ने भगवान् महावीर से प्रश्न किया। उन्होंने अपने लिए ही नहीं, किन्तु समस्त विश्व के लिए पूछा-'भगवन् ! जीवन में कहीं पाप न लगे ऐसी राह बताइए । क्योंकि जीवन पापमय है, यहाँ चलते हुए भी पाप लगता है।
विश्व के कुछ दार्शनिकों ने इस शास्वत प्रश्न का समाधान इस प्रकार करने का प्रयत्न किया है
-चलना पाप है ; -तो खड़े रहो। -खड़े-खड़े भी पाप लगता है। -- अच्छा, बैठ जाओ। -पाप तो बैठने पर भी लगता है। -अच्छा, पड़ जाओ। सारे शरीर को मुर्दे की तरह पड़ा रखो । —पड़े-पड़े भी पाप लगता है। --तो मौन धारण कर लो, चुप रहो, बोलो मत और खाओ-पीओ भी नहीं !
क्या जीवन का यही अर्थ है ? जैन-धर्म के समाधान करने की यह पद्धति नहीं है । भगवान् कभी यह नहीं कहते कि चलने से पाप लगता है तो खड़े हो जाओ। यदि इस पर भी पाप लगे तो बैठ जाओ, फिर पसर जाओ; और इस तरह जीवन को समाप्त कर दो । तीर्थंकरों के धर्म में सच्चा साधक वह नहीं है, जो इधर 'वोसिरे' कहे और उधर एक जहर की पुड़िया खा ले। बस रामनाम सत्य ! न तो जीवन रहे, और न जीवन की हरकत ही रहे । जैन-धर्म तो यही कहता है कि-अरे मनुष्य ! तेरी जिन्दगी अगर पचास वर्ष के लिए है तो पचास वर्ष; अगर सौ वर्ष के लिए है तो सौ वर्ष; और यदि हजार वर्ष के लिए भी है तो हजार वर्ष पूरे कर, शान के साथ पूरे कर । किन्तु एक बात का ध्यान अवश्य रखो-प्रत्येक कार्य यतनापूर्वक करो। यदि चलना है तो चलने में यतना रखो, विवेक रखो । यदि खड़े हो तो बैठने की बात नहीं है । यथा प्रसंग खड़े रह सकते हो, पर विवेक के साथ खड़े होओ । यदि बैठना हो, तो भी विवेक के साथ बैठो । यदि सोना है, तो सोओ भी विवेक के साथ । यदि खाना है या बोलना है, तब भी यही शर्त है । विवेक के साथ ही खाओ, विवेक के साथ ही बोलो। फिर पाप-कर्म कदापि नहीं बँधेगे । पाप-कर्म तो अविवेक में ही है।
बस विवेक ही अहिंसा की सच्ची कसौटी है। जहाँ विवेक है, वहाँ अहिंसा हैः और जहाँ विवेक नहीं है, वहाँ अहिंसा भी नहीं है । विवेक या यतनापूर्वक काम करते हुए भी यदि कभी हिंसा हो जाय तो वह कार्य हिंसा का नहीं होगा । अनुबन्धहिंसा नहीं होगी।
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जयं चरे जयं चिट्ठ, जयमासे जयं सए । जयं भुजतो भासंतो, पावकम्मं न बंधइ ॥
-दशवकालिक सूत्र ४,८
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