SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८४ अहिंसा-दर्शन मानप्रतिष्ठा एवं महत्ता की भावनाएँ ही उसके मूल में थी। मनुष्य अपने यश, प्रतिष्ठा एवं स्वार्थों के पीछे ऐसा पागल हो जाता है कि वह कर्तव्य और अकर्तव्य की सीमाएँ तोड़ देता है । मन का दर्प, सर्प बन कर उसे अन्दर ही अन्दर काटता रहता है, अहंकार और महत्त्वाकांक्षा 'येन केन प्रकारेण' आगे बढ़ने का रास्ता ढूंढ़ती रहती है। उसके सामने माता-पिता के जीवन का भी कोई मूल्य नहीं रह जाता। इतिहास अपने पन्ने उलट कर बता रहा है कि जब-जब मनुष्य इच्छाओं का दास बना है, स्वार्थों की भूल-भुलैया में भटका है, और 'अपनेपन' के क्षुद्र घेरे में बन्द हुआ है; तब-तब ऐसे कूणिकों का जन्म हुआ है; दुर्योधन और दुःशासनों का जमाना आया है । वासनाओं के इसी पिण्ड से कंस जन्म लेता है; औरंगजेब जन्म लेता है। ये वे पुत्र हैं, जिन्होंने अपने पिताओं के लिए, भाइयों और परिजनों के लिए कैदखाने तैयार किए हैं, उन्हें पशु की तरह पिंजड़े में डाला है, कालकोठरी में बन्द किया है और तलवार के घाट उतारा है। अपनी सुख-लिप्सा के नशे में चूर हो कर उनके संसार को उजाड़ा है उन्होंने स्वर्ग से नरक में डाला है। ऐसे ही व्यक्तियों की बदौलत संसार की यह दुर्दशा है। मैं सोचता हूँ कंस और कूणिक एक व्यक्ति का प्रतीक न हो कर आज स्वार्थान्धता और महत्त्वाकांक्षा का प्रतीक बन गया है। अहिंसा की वह कसौटी संकीर्ण तुच्छ स्वार्थ के कांटेदार धेरे से घिर कर धर्म के बदले अधर्म बन गई है। भारतीय संस्कृति में आज हजारों वर्षों के बाद भी कंस और कूणिक के प्रति जनसाधारण में तिरस्कार की भावना विद्यमान है । मैं समझता हूँ, वह घृणा और तिरस्कार उनकी इच्छादासता और स्वार्थवृत्ति के प्रति है। अतः जब तक मानव अपने ही स्वार्थों और इच्छाओं का दास बना हुआ है। अपने स्वार्थ के लिए दूसरों के प्राणों से खेल रहा है, वासना और विकारों के बन्धन नहीं टूटते, स्वार्थ की बेड़ियाँ नहीं टूटतीं, तब तक मनुष्य अपने आप में कैद रहेगा। अपने ही क्षुद्र घेरे में, पिंजड़े में पशु की तरह घूमता रहेगा। ऐसा मनुष्य संसार तो क्या, अपना भी भला नहीं कर सकेगा, और न ही वह अहिंसा भगवती की झांकी देख सकेगा। जो आदमी अपने अन्दर बंद हो गया है, स्थिर स्वार्थों से घिर गया है और जिसे अपनी ही जरूरतें और चीजें महत्त्वपूर्ण मालूम होती हैं, वह उनकी पूर्ति के लिए दूसरों के जीवन की उपेक्षा करता है, और ऐसी उपेक्षा करता है, जैसी एक नशेबाज ड्राइवर । एक ड्राइवर नशा करके मोटर में बैठ जाता है और पूरी रफ्तार में मोटर छोड़ देता है । अब मोटर दौड़ रही है और ड्राइवर को भान नहीं है कि इस रास्ते पर दूसरे भी चलने वाले हैं । दूसरों के जीवन भी इसी सड़क पर घूम रहे हैं, वे उसकी बेहोशी से कुचले जा सकते हैं। वह तो नशे की मस्ती में झूम रहा है और मोटर तीव्रतम वेग के साथ दौड़ी जा रही है । क्या वह ड्राइवर सच्चा और ईमानदार ड्राइवर है ? नहीं, कभी नहीं । इसी प्रकार जो मनुष्य अपने लिए स्वार्थ या वासना का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy