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________________ अहिंसा की कसौटी में महत्त्वाकांक्षाएँ उठती हैं, वह राज्य - लिप्सा की उद्दाम तरंगों के थपेड़ों में बह जाता है । वह पिता के प्रति क्या सोचता है ? - " पिता बूढ़े हो गये हैं, किन्तु अभी भी सिंहासन नहीं छोड़ रहे हैं । मैं नौजवान हूँ, मेरी कुछ आकांक्षाएँ हैं, इच्छाएं हैं । यदि इस जवानी में ही साम्राज्य का आनन्द नहीं लिया, तो फिर क्या बूढ़ा हो कर लूंगा । अभी कोई विजययात्रा नहीं की, देश-प्रदेश के सिंहासनों पर अपना झण्डा नहीं फहराया, तो क्या बुढ़ापे में दिग्विजय करने निकलूंगा ? और पता नहीं, बूढ़ा कब मरेगा, कब सिंहासन खाली होगा ? और कब मेरा राजतिलक होगा ? क्या तब तक मैं भी बूढ़ा नहीं हो जाऊँगा ? बूढ़ा होने पर सिंहासन मिला, तो क्या आनन्द उठाऊँगा ? जवानी तो यों ही व्यर्थ बीत जाएगी ।" सोचिए, कूणिक किस प्रकार की कल्पनाओं में बह रहा है । किन दुराशाओं और लिप्साओं की दासता में जकड़ा जा रहा है। वह सिंहासन को कांटों का ताज नहीं, फूलों की सेज समझ रहा है, जिस पर खुल कर जीवन का आनन्द लूटा जा सकता है | वह सिहासन पर अधिकार करना चाहता है । उत्तरदायित्व वहन करने के लिए नहीं; प्रजा की सुख-समृद्धि की भावना से नहीं, अपितु अपनी इच्छा और वासना की पूर्ति के लिए अधिकार चाहता है । भारत के प्राचीन राजाओं का आदर्श क्या रहा है ? भारत का राजा राज्य के खजानों का धन और ऐश्वर्य का स्वामी नहीं होता था, वह अपने विशुद्ध सेवाधर्म के बल पर प्रजा के हृदय का स्वामी होता था, प्रजा के सुख के लिए उसका खजाना था, सेना थी और स्वयं उसका जीवन भी ! राजा सिंहासन पर किसलिए बैठता है ? प्रजा की सुरक्षा और समृद्धि के लिए, न कि जनता की लाश पर अपने सुख के महल खड़े करने के लिए । प्रजा के रुदन पर जिसे हँसी फूटती हो, प्रजा के दुःख और पीड़ाओं में जिसे सुख मिलता हो, और प्रजा के हृदय के गर्म निश्वासों पर जिसके जीवन की गर्मी टिकी रहती हो, वह राजा नहीं होता, राक्षस होता है, सिंहासन का अधिकारी नहीं, धिक्कारी होता है, कलंक होता है । ८३ मैं कह रहा था कि कूणिक अपनी इच्छाओं के अन्ध-प्रवाह में बह जाता है, राज्यप्राप्ति के सपने देखता है । सिंहासन हथियाने के लिए एक बेटा बाप को मारना चाहता है, अपनी माँ का सौभाग्य सिन्दूर पोंछना चाहता है; माँ की हँसी-खुशी हाहाकार में बदलने को तैयार हो जाता है । मनुष्य की दुर्दान्त वासना और निम्न स्वार्थवृत्ति उसे कहाँ से कहाँ ले जाती है: कुछ पता नहीं । कुणिक कालीकुमार आदि दशों भाइयों को गाँठता है, राज्य का लोभ दे कर उन्हें अपने षड्यन्त्र में शामिल करता है और एक दिन सम्राट् को सिंहासन से उतार कर काठ के पिंजड़े में पशु की तरह बन्द कर डालता है । इतिहास की इस जघन्य घटना की प्रेरक मनःस्थिति का विश्लेषण किया जाए तो पता चलेगा कि कूणिक की उद्दाम इच्छाएँ अनियन्त्रित राज्यलिप्सा और झूठी Jain Education International " For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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