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________________ धर्म-वीर सुदर्शन नहीं क्रोध का पार रहा, तन-मन में इक भूचाल हुआ ॥ "लाज शर्म कुछ तो रखिएगा, नहीं बेहया बनिएगा । सत्यवती सेठानी जी पर, व्यर्थ कलंक न धरिएगा ।। शील धर्म भी दुनियाँ में है, - कुछ तो श्रद्धा रखिएगा। अपने-जैसी ही सब जग की, महिलाएँ न समझिएगा ॥" बातों-बातों में बढ़ी, दोनों में तकरार, व्यर्थ क्लेश के कार्य में, फँसता यों संसार । अभया रानी ले गई, कपिला को एकान्त; स्पष्टतया पूछ। सभी, बीता सब वृत्तान्त । कैसी बाते हैं सारी बतादे सखी ! जैसी बीती हो वैसी सुनादे सखी! प्रेम से जब दो हृदय मिलते वहाँ क्या भेद है, भेद होता है जहाँ, बस प्रेम का उच्छेद है; पर्दा दिल से दुई का हटादे सखी! । हीजड़ा क्यों कर भला तू सेठ को है जानती, जबकि दुनिया पुत्र वाला स्पष्ट उस को मानती; __ असली अन्दर का भेद बतादे सखी! रंभा और तेरे कथन में रात-दिन का फर्क है, जान लूँ सच झूठ क्या है, बस यही मम तर्क है; • भारी उलझन है, तू सुलझा दे सखी! - ३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001218
Book TitleDharmavir Sudarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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