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धर्म-वीर सुदर्शन त्यागी है, बैरागी है,
___घर बैठा भी संन्यासी है ॥ रानीजी, यह सती मनोरमा,
___ उस ही की सेठानी है। पुत्र-रत्न की जुगल जोड़ी भी,
उस ही की लासानी है ॥" सुनते ही इतना कपिला तो,
चौंक एकदम उछल पड़ी । झूठ ! झूठ ! कहकर दासी पर,
जोर से उबल पड़ी ॥ "रंभा ! क्यों तू बिना बात की,
झूठी गप्प लड़ाती है । लाज न आती है तुझको,
जो माया-जाल बिछाती है । और जगह क्या खाक टलेगी,
रानी को बहकाती है । सेठ सुदर्शन के जो दो-दो,
पुत्र - रत्न बतलाती है । सेठ बिचारा जन्मकाल से,
है हिजड़ा अति दुखियारा । कैसे हो सकता हिजड़े-घर,
पुत्र-रत्न का उजियारा ॥" रंभा बोली “मिसराइन !
फिरती हो किसकी बहकाई । झूठा दोष लगाते तुमको,
तनिक नहीं लज्जा आई ॥
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