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धर्म-वीर सुदर्शन
है । विचार-चर्चा में उनकी बुद्धि ने कभी हार स्वीकार नहीं की । कवि जी अथ से इति तक विचारमय हैं । विचार करना उनका सहज स्वभाव है ।
उपाध्याय अमर मुनि जी स्थानकवासी समाज के एक सजग, सचेत और सतेज विचारक सन्त हैं । वे कवि हैं, चिन्तक हैं, दार्शनिक हैं, साहित्यकार हैं और आलोचक भी । केवल शाब्दिक रचना के ही नहीं, किन्तु समाज, संस्कृति और धर्म के भी। उन्होंने अपनी पैनी दृष्टि से जिन सत्यों का साक्षात्कार किया, उनका खुलकर प्रयोग एवं प्रचार भी किया । वे सत्य को केवल पोथी और वाणी में ही नहीं, जीवन के धरातल पर देखना चाहते हैं । आकाश के चमकीले तारों की अपेक्षा धरती के महकते फूलों को कवि जी अधिक प्यार करते हैं । कवि जी क्रांतिकारी भी हैं, कवि जी सुधारक भी हैं और कवि जी पुराण-पंथी भी हैं । वे जीवन के नये रास्तों को स्वीकार करना चाहते हैं, और अगम्य तत्वों के प्रति कवि जी पूर्णतः श्रद्धा-शील हैं । व्यक्तित्व का आचार पक्ष :
कवि जी के व्यक्तित्व का आचार-पक्ष अत्यन्त समुज्जवल है । कवि जी का जीवन विचार और आचार की मधुर मिलन भूमि है । उनके विचार का अन्तिम बिन्दु है-विचार । विचार और आचार का सन्तुलित समन्वय ही वस्तुतः 'कवि जी' पद का वाच्यार्थ है । गम्भीर चिन्तन और प्रखर आचार कवि जी की जीवन-साधना का सार है ।
कवि जी के विचार में स्थानकवासी जैन धर्म का मौलिक आधार है चैतन्य देव की आराधना और विशुद्ध चरित्र की साधना, साधक को जो कुछ भी पाना है, वह अपने से ही पाना है । विचार को आचार बनाना और आचार को विचार बनाना यही साधना का मूल संलक्ष्य है ।
ज्ञानवान होने का सार है-संयमवान् होना । संयम का अर्थ है अपने आप पर अपना नियंत्रण । यह नियंत्रण किसी के दबाव से नहीं, स्वतः सहज भाव में होना चाहिए । मानव जीवन में संयम व मर्यादा का बड़ा महत्त्व है । जब मनुष्य अपने आपको संयमित एवं मर्यादित रखने की कला हस्तगत कर लेता है, तब वह सच्चे अर्थ में ज्ञानी और संयमी बनता है ।
कवि जी का कहना है कि "भौतिक भाव से हटकर अध्यात्म भाव में स्थिर हो जाना यही तो स्थानकवासी जैन धर्म का स्वस्थ और मंगलमय दृष्टिकोण कहा जा सकता है । आत्म-देव की आराधना के साधन भी अमर होने चाहिए । शाश्वत की साधना, शाश्वत से ही की जा सकती है ।"
विजय मुनि शास्त्री
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