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परिशिष्ट अपने प्रण की पूर्ति हेतु जो
- हंसते - हंसते मरते थे ॥ (५३) गाड़ी के पहिए की मानिंद,
पुरुष वचन चल आज हुए। सुबह कहा कुछ, शाम कहा कुछ,
टोका तो नाराज हुए ॥ (५४) राज-मुकुट, धन, कंचन तजना,
सहज न कुछ भी जोर लगे। किन्तु मान, अपमान द्वन्द्व में,
__ त्याग - विराग तुरंत भगे ।। (५५) पीतल, कोरा पीतल निकला,
जिसको कंचन समझा . था। गंध हीन किंशुक को पाटल
पुष्प विमोहन समझा था ॥ (५६) न्याय योग दोनों ही मन का
साम्य रूप अपनाते हैं । चंचल मन होने पर दोनों,
कार्य नष्ट हो जाते हैं ॥ योगी जैसे प्राणि मात्र को,
अपने तुल्य समझता है । शासक भी पर के सुख-दुःख का
भान हृदय में करता है॥ (५८) न्यायालय में एक भाव से
गीले - सूखे जलते रिश्वत खा-खाकर अधिकारी,
न्याय नाम पर पलते हैं ॥ (५६)
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