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परिशिष्ट
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सत्य धर्म
की टक्कर खाकर, क्षण में जर्जर, कण-कण हो ॥
(४१)
बाधाओं पर विजय प्राप्त कर,
जो निज सत्य निभाता है । नर से नारायण की पदवी
वही जगत में पाता है। (४२) आध्यात्मिक बल अनुपम बल है,
कहीं न इसकी समता है।
को धर्मात्मा, करने की अविचल क्षमता है। (४३)
पापात्मा
(४४)
चमत्कार प्रत्यक्ष आँख से
देख किसे विश्वास न हो ? अंधकारमय हृदय गुहा में,
क्यों फिर ज्ञान-प्रकाश न हो ? पाप कर्म के लिए जगत में,
सहते लाखों दाह सही। धन्य-धन्य वे जिन्हें धर्म हित,
दुःखों की परवाह नहीं॥ पापी बनने में दुःख क्या है ?
कोई भी बन सकता है। पर धर्मी बनने में तन का,
शोणित कण-कण जलता
(४५)
धर्म वही है, जो संकट की,
घड़ियों में भी भंग
न
हो।
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