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________________ धर्म-वीर सुदर्शन चमक उठा व्यापार अंग का, लक्ष्मी ने आ बास किया ॥ कोई भी बेकार युवक नर, नहीं कभी भी रहता है । यथा योग्य निज कार्य नित्य ही, पाकर सुख से हँसता है । होता था न प्रकट या गुपचुप, कहीं कभी भी मदिरा - पान । नाम मात्र से भी मदिरा के, समझा जाता था अपमान । जूआ, चोरी, और परस्त्रीगमन, सर्वथा नहीं रहे । अंग देश में स्वच्छ समुज्वल, सदाचार के स्रोत बहे ॥ स्वप्नलोक में भी दुःखों की, ___ कभी न छाया पड़ती थी । रात्रि दिवश जनता में केवल, सुख की वीणा बजती थी । न्याय-निपुण अधिकारी-गण में, रिश्वत का था नाम नहीं । क्रीतदास थे जनता के था, अकड़-धकड़ का नाम नहीं ।। धन्य सुदर्शन ! तूने अपना, ___ध्येय पूर्ण कर दिखलाया । अंग राष्ट्र का बन उद्धारक, अमर सुयश जग में पाया ।। - - - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001218
Book TitleDharmavir Sudarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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