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अङ्गराष्ट्र का उत्थान
पार न पा सकता है कोई, कैसी विकट
विश्वमोहिनी सुर - बाला सा,
आज झूलता है फाँसी पर,
करता तन
कैसा सुन्दर कोमल तन !
मन में कंपन !!
श्रेष्ठी ने तो क्षमा दिला कर, दंड यंत्रणा
पाप - भार से दबी स्वयं ही,
सभी ढँकी ।
नहीं ज़रा भी उभर सकी ॥
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'यादृक् करणं तादृग् भरणं',
उक्ति न अणु भी मिथ्या है । जीवन-पथ में पाप-पुण्य गति,
रती रती तथ्या है ॥
वक्रमा है ॥
मोह - विकल संसार, जाल,
मकड़ी के तुल्य बनाता है । अन्य फँसाने जाता है, पर,
आप स्वयं फँस जाता है ॥"
बुला दासियों को रानी का, शव नीचे कौन-कौन दासी गायब है ? यह भी पता
रंभा का जब पता न पाया, भेद
समझ
में
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है ।
लगाया है ॥
उतराया
आया है ।
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