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________________ अङ्गराष्ट्र का उत्थान छत से रस्सी बाँध, लगा गल, फाँसी निज हत्या करली ॥ पश्चात्ताप किया था, फलतः, देवयोनि में जन्म लिया । किन्तु कलंकारोपण ने, अतिनिन्द्य व्यन्तरी रूप दिया । ठाठ - बाठ थे अभया के, . मन - मोहन सुर - बाला जैसे । आज देखिए फाँसी पर, - मृत देह झूलती है कैसे ? पापवाटिका कुछ ही दिन तक, खूब फूलती - फलती है। कर्मोदय का हिम पड़ने पर, ___ क्षण - भर में ही जलती है । श्रेष्ठी जी के धाम से, लौटे श्री भूपाल; सोच रहे थे चित्त में, अभया का यों हाल । "अभया का अपराध सर्वथा, भयंकर है । श्रेष्ठी को लांछित करने का, किया. पाप प्रलयंकर है ॥ पातिव्रत की मूर्ति बनी थी, मुझको भ्रम में फँसा लिया । पड़ा रहा व्यामोह-जाल में, नहीं ज़रा भी ध्यान दिया ।। - १३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001218
Book TitleDharmavir Sudarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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