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________________ धर्म-वीर सुदर्शन अभया का फिर हाल हुआ क्या, ___ चलिए नरपति - मन्दिर में । पाप-दूत ने दिया न रहने, अभया को तन - मन्दिर में ।। मूर्छा भंग हुई रानी की, रंभा नजर न आई है। बिना सहायक के दुगुनी, तब शोक - घटा घहराई है। "हा रंभा ! तू भी यों मुझको, छोड़ कष्ट में चली गई । आखिर धोखा दिया भयंकर, तेरी भी मति भ्रष्ट हुई ॥ तेरे ही बल पर मैंने यह, झूठा झगड़ा खड़ा किया । आनंद में थी, व्यर्थ स्वयं को, कष्ट - जाल में फँसा लिया । तू रहती तो बच भी जाती, ___अब कैसे बच पाऊँगी ? इस संकट में जीवन-रक्षक, और कहाँ से लाऊँगी ? अपमानित होकर मरना तो, जग में महा भयंकर है। 'राजा जी मारें' इससे तो, स्वयं मरण श्रेयस्कर है ॥" अभया ने मरने को दिल में, साहस की बिजली भर ली । १२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001218
Book TitleDharmavir Sudarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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