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धर्म-वीर सुदर्शन राजा होकर ऐसा भारी,
जुल्म प्रजा नारी की बातों पर चलकर,
दुष्कृत सागर
पर
करता है !
भरता है ॥
सत्य-मूर्ति श्रीमान् सुदर्शन,
को भी शूली लटकाया । पत्थार-सा जड़ बना जरा भी,
नहीं हृदय में भय खाया ।।
सावधान हो दुष्ट, पाप का,
फल अब शीघ्र चखाता हूँ। मार वज्र तन चूर्ण बनाकर,
नामो निशां मिटाता हूँ ॥"
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आँखें पथरा गईं भूप की,
कम्पित वपु बेहोश हुआ । कौन मृत्यु के सम्मुख आकर,
तुच्छ कीट बाहोश हुआ ॥ विकट परिस्थिति देख सुदर्शन,
करुणा से छलछला रहे । स्वर्गाधिप से स्नेह-सुधा,
संसिक्त वचन इस भाँति कहे ॥
चलाते हो ?
"देवराज ! यह क्या करते हो,
किस पर वज्र पामर दीन हीन का नाहक,
क्यों तनु-रक्त
बहाते
हो।
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