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आदर्श क्षमा स्वर्णासन पर बैठ गर्व से,
भूप पूर्व क्या था बकता ? आज देखिए, वही नम्र हो,
चरण पकड़ कर क्या कहता ?
"बुद्धि भ्रष्ट हो गई सर्वथा,
नहीं जरा सोचा - समझा । अन्दर बाहिर श्वेत हंस को मैं
काल कौव्वा समझा ॥
भूल गया सब न्याय-व्यवस्था,
पागलपन अति ही छाया । पापिन ने मँझधार डुबोया,
जाल बिछाया, बहकाया ।।
पूछताछ कुछ भी न करी,
__बस झट शूली का हुक्म दिया। धर्म-मूर्ति श्रीमान् आपका,
अति भीषण अपमान किया ।
अपराधी हूँ बेशक भारी,
किन्तु दास को क्षमा करें । प्राणदान हैं हाथ आपके,
दयासिन्धु ! बस दया करें ॥"
पास खड़ा था इन्द्र, कोप से,
पूरित सारा गात वज घुमाकर बोला “क्यों अब,
मृत्यु - त्रस्त बदजात
हुआ ।
हुआ ॥
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