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________________ - शूली से सिंहासन आज हमारी चम्पा नगरी, हा ! अनाथ बन जाएगी । संरक्षक के बिना नित्य, नव कष्ट भयंकर पाएगी । राजा का अन्याय निरन्तर, भीषण बढ़ता जाता है । क्या करें और क्या नहीं करें, कुछ भी न समझ में आता है । देता है हा हंत ! आप-से, सज्जन को भी शूली - दंड । राजगर्व में छका हुआ है, बना हुआ है अति उद्दण्ड ॥ अन्तस्तल में धधक रहे हैं, भीषण प्रतिहिंसा के भाव । राज-दंड से किन्तु त्रस्त हैं, नहीं मुखोद्घाटन की ताब ॥" धीर वीर था एक नागरिक, गर्ज उठा कर दृढ़ हुँकार । देख सका वह नहीं पाशविक, निर्दयतामय अत्याचार ॥ "दोषी था तो सेठ क्यों न, न्यायालय के सम्मुख लाया ? क्यों न दोष पूरा साबित कर, जन-समूह को दिखलाया ? केवल रानी के कहने पर, कैसे शूली देता है ? १०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001218
Book TitleDharmavir Sudarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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