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________________ धर्म-वीर सुदर्शन न्याय में अपने बिगाने का न होता भेद है, भेद होता है जहाँ, होता वहाँ ही खेद है; सच्चे ईश्वर के अंश कहाना प्रभो ! राजपद की श्रेष्ठता, ले डूबते हैं जी-हुजूर, कान का कच्चा बना देते हैं माया के मजूर; ऐसी बातों में हर्गिज न आना प्रभो ! दो घड़ी प्रभु-भक्ति भी करना कि झंझट त्यागना, 'कर सकूँ कर्तव्य पालन, हर सुबह यह माँगना; सोते मानस को नित्य जगाना प्रभो ! मंत्र-मुग्ध सी विस्मित अति ही, सभी हुई सुनकर वाणी । अन्तस्तल में धन्य-धन्य की, उठी मधुर झंकृत वाणी ॥ पर, यह सत्यामृत राजा को, पूर्ण हलाहल - रूप हुआ । समझा मुझे चिढ़ाता है, इस कारण राक्षस-रूप हुआ ॥ द्वेष-भाव जब बढ़ जाता है, तब विवेक कब रहता है ? शुद्ध हृदय से कहा हुआ भी, वचन अग्नि सम दहता है। राजा जल्लादों से कहने, लगा "इसे बस ले जाओ । जाहिल है, क्या माँगेगा, झट शूली का पथ दिखलाओ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001218
Book TitleDharmavir Sudarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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