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________________ शूली से सिंहासन प्राण-दान के बिना और जो, कुछ भी चाहो तुम माँगो । ग्राम, नगर, भोजन, जो भी, मन चाहे, वह ही माँगो ॥" हँस कर बोला वीर सुदर्शन, "नहीं तमन्ना कुछ भी है। क्या माँD जब मनो-भावना, पूर्ण सभी पहले ही है ॥ अगर आप कुछ देना चाहें, तो प्रभु केवल यह दीजे । माँगे मेरी जो कुछ भी हैं, पूर्ण धराधीश्वर कीजे ॥" माँगे मेरी न दिल से भुलाना प्रभो ! पूरी करना, यह निज-प्रण निभाना प्रभो ! राज-राजेश्वर पिता है, प्रिय प्रजा संतान है, न्याययुत सुख शान्ति देने से ही रहती शान है, __ अत्याचारी न चक्र चलाना प्रभो ! घोर दुःख सहती प्रजा है, खोलती न जबान है, आपके हाथो में उसकी नित्य रहती जान है, सब को सस्नेह धीर बँधाना प्रभो ! देश में जो भी कहीं, रोगी, दुखी असहाय हों, आपकी सेवा के द्वारा, वे सभी ससहाय हों; खुल्ले हाथों खजाना लुटाना प्रभो ! भूप और पतिताचरण का रात-दिन-सा वैर है, दुर्व्यसन आखेट आदिक हों, वहाँ क्या खैर है; निर्मल स्वच्छ स्व-जीवन बनाना प्रभो! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001218
Book TitleDharmavir Sudarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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