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________________ %3 धर्म-वीर सुदर्शन साहित्यिक जीवन का प्रारम्भ कविता से ही हुआ है । अतः समाज के प्रायः सभी आबाल-वृद्ध लोग आपको कवि जी के नाम से जानते और पहचानते हैं । भारत के आप किसी भी प्रान्त में चले जाइये और वहाँ के किसी जैन से बातचीत कीजिए, उस बातचीत के प्रसंग में वह अमरमुनिजी अथवा अमरचन्द्रजी महाराज शब्द का प्रयोग न करके, कविजी महाराज शब्द का ही प्रयोग करता है । कवि श्री जी के गीतों में, कविताओं में और काव्यों में धर्म, दर्शन और संस्कृति का इतना संतुलित समन्वय हुआ है, वह अन्यत्र आपको किसी अन्य जैन कवि में उपलब्ध नहीं होगा । भाव, भाषा और शैली तीनों सुन्दर हैं, मधुर हैं और रुचिकर हैं । प्रस्तुत में 'धर्म-वीर सुदर्शन' काव्य की बात मैं आपसे कह रहा था । प्रस्तुत काव्य सोलह सर्गों में परिसमाप्त हुआ है । इसकी भाव, भाषा और शैली इतनी आकर्षक और लोकप्रिय रही है, कि इसका पञ्चम संस्करण अब आपके सामने प्रस्तुत किया जा रहा है । भारत की अन्य भाषाओं में भी इसका पद्यानुवाद हो चुका है । वर्षावास में कथाकार मुनि, धर्म-वीर सुदर्शन को अपनी कथा का आधार बना कर अपने व्याख्यान और भाषण का रंग जमाते हैं । स्थानकवासी संत ही नहीं, तेरापंथ और मूर्ति-पूजक समाज के संत भी अपने-अपने व्याख्यानों में इसका आधार लेकर जन-चेतना को शील और सदाचार का महत्त्व बतलाते हैं । इसकी भाषा सरल और सुन्दर होकर भी अलंकृत है । इन्हीं सब बातों से यह काव्य जन-मन का एक लोक-प्रिय काव्य बन गया है । कुछ वर्षों से यह अनुपलब्ध था और चारों ओर से इसकी माँग हो रही थी । अतः ज्ञान-पीठ से इसका पुनः प्रकाशन हुआ है । किसी भी काव्य और पुस्तक की लोक-प्रियता और सफलता का आधार यही होता है, कि उस युग की जन-चेतना उसे अधिक से अधिक अपनाये और उसके उदात्त विचारों को अपने जीवन में उतारे । _ 'धर्म-वीर सुदर्शन' काव्य की रचना कब और कैसे हुई, इसकी भी एक रोचक कहानी है । सम्वत् १६६३ के फाल्गुन मास में होली के उत्सव पर कवि श्री जी महाराज नारनोल से देहली जाते हुए गोकुलगढ़ ग्राम में ठहरे हुए थे, जो रेवाड़ी के समीप है । उस समय होली के हुड़दंग को देखकर और सदाचार की संस्कृति के विपरीत गन्दे गीतों को सुनकर कवि श्री जी ने अपने मन में एक गहरी वेदना का अनुभव किया । कुछ स्वयं के हृदय की वेदना और कुछ साथी साधुओं की निरन्तर प्रेरणा का यह फल है, कि इस काव्य का प्रारम्भ वहीं पर हो गया था और कुछ काल बाद ही इसकी परिसमाप्ति भी हो गई थी । इसका सर्वप्रथम प्रकाशन सम्वत् १६६५ में आगरा में ही हुआ था, और अपने अनेक संस्करणों के बाद फिर इसका यह पञ्चम संस्करण भी आज आगरा से ही हो रहा है । यही इस काव्य की सफलता और लोकप्रियता की मधुर कहानी है । -विजय मुनि शास्त्री, साहित्यरत्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001218
Book TitleDharmavir Sudarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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