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________________ भिक्षाचरी - शारीरिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए आहार आदि लेने की जो प्रवृत्ति करनी पड़े उसे अपने सुख-भोग के लिए नहीं लेना, अपितु भोगों के संकल्परहित हो, देने वाले की प्रसन्नता के लिए लेना भिक्षाचरी है। सुख भोग के लिए लेना संयम के कोयले (भस्म) करना है । रसपरित्याग - शारीरिक आवश्यकतापूर्ति एवं दैनिक कार्यों के लिए खाना, पीना, चलना, फिरना, बोलना आदि जिन प्रवृत्तियों को करना पड़े, उनमें रस नहीं लेना रसपरित्याग है । विषयों की प्रवृत्तियों में रस लेना वासना है । वासना से ही संस्कार अंकित होते हैं और नवीन कर्मों का सर्जन, अर्जन, बंधन होता है । वासनारहित प्रवृत्ति से संस्कार अंकित नहीं होते अर्थात् नवीन कर्मों का सर्जन, अर्जन, बंधन का निरोध होता है एवं पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति तथा अनुभाग जीर्ण (अपवर्तन - क्षीण) होते हैं । कायक्लेश - काया के स्तर पर जो भी भूख, प्यास, गर्मी, सर्दी, रोग आदि परीषहजनित एवं प्रकृतिप्रदत्त कष्ट आएँ, क्लेश होवें, उन्हें समतापूर्वक सहन करना, उनकी प्रतिक्रिया न करना कायक्लेश तप है। उन कष्टों, परीषहों को मिटाने के लिए रागात्मक - द्वेषात्मक प्रतिक्रिया करना ही नवीन संस्कारों को जन्म देने तथा नये कर्मों के बंधन के हेतु हैं, अतः कष्टों को समता से सहन करना 'कायक्लेश तप' है । प्रतिसंलीनता - यह बाह्य तप की परिसीमा का सूचक है और आभ्यन्तर तप का प्रवेश द्वार है । मन, वचन और काया की प्रवृत्तियाँ साधक को बहिर्मुखी बनाती हैं, स्व में स्थित नहीं होने देती। क्योंकि प्रवृत्ति में रत या तल्लीन रहते साधक अंतर्मुखी नहीं हो सकता और अंतर्मुखी हुए बिना स्वभाव में स्थित नहीं हो सकता। अतः स्वानुभूति करने के लिए यह आवश्यक है कि मन, वचन और काया की वृत्तियाँ या प्रवृत्तियाँ, जो बाह्य विषयों में तल्लीन व संलीन हो रही हैं उन्हें बाह्य-विषयों से विमुख कर स्व में लीन किया जाय। इसे ही प्रतिसंलीनता या प्रत्याहार कहते हैं । प्रतिसंलीनता के चार प्रकार हैं : 1. इन्द्रिय प्रतिसंलीनता 2. कषाय प्रतिसंलीनता 3. योग प्रतिसंलीनता और 4. विविक्तशयनासन प्रतिसंलीनता । इन्द्रियों को विषयों में तल्लीन होने से रोकना इन्द्रिय प्रतिसंलीनता है । कषायजन्य राग- - द्वेष के प्रवाह का निरोध करना कषाय प्रतिसंलीनता है । मन, वचन, काया की दुष्प्रवृत्तियों का निरोध करना, इनकी गुप्ति करना योग प्रतिसंलीनता है । शयन (सुषुप्ति - गहन निद्रा) में सब क्रियाओं से रहित हो जाते हैं, उसी प्रकार जाग्रत में सुषुप्तिवत् होना विविक्त शयनासन है । यह जाग्रतसुषुप्ति अर्थात् पूर्ण शान्त अवस्था प्रतिसंलीनता का चरम रूप है। यह आभ्यन्तर 90 कायोत्सर्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001217
Book TitleKayotsarga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size7 MB
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