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________________ क्रिया का करना व्यर्थ या मिथ्या है, वह क्रिया सही नहीं है। जैसे सही दवा या उपचार वह है जिससे रोग मिट जावे, फिर दवा और उपचार करने की आवश्यकता न रहे। इसी प्रकार जानने या चिन्तन की सही क्रिया वह है जिससे जिज्ञासा की पूर्ति हो जाये, जानना शेष न रहे । अनन्तकाल से जानने की क्रिया या प्रयत्न बराबर करते रहने पर भी अभी तक अज्ञानता ज्यों की त्यों विद्यमान है, जानने का कार्य पूरा नहीं हुआ। इससे यह परिणाम निकलता है कि जानने की क्रिया सही (सम्यक) रूप में नहीं हो रही है, यही वास्तविकता भी है। कारण कि हमने जब भी जानने का प्रयत्न किया तब उसी को जानने का प्रयत्न किया जो 'पर' है, अन्य है, नश्वर है। परन्तु स्व को, शाश्वत को, ध्रुव को जानने का प्रयत्न ही नहीं किया, अर्थात् स्वाध्याय कभी नहीं किया। स्वाध्याय के नाम पर 'पर' का, अन्य का, संसार का अध्ययन ही किया है, क्योंकि पर को ही स्व (निज) रूप मान रहे हैं। इसी भूल के परिणाम से प्राणी दुःखी हो रहे हैं, संसार में परिभ्रमण व जन्म-मरण कर रहे हैं। अतः इस भूल का अन्त करना अति-आवश्यक है। इस भूल का अन्त तब ही सम्भव है जब स्व और पर के यथार्थ स्वरूप को समझा जाये, स्व को पर से भिन्न समझा जाए। जैसा कि आचार्य पूज्यपाद ने इष्टोपदेश में कहा है जीवोऽन्यः पुद्गलाश्चान्य इत्यसौ तत्त्वसंग्रहः। यदन्यदुच्यते किंचित् सोऽस्तु तस्यैव विस्तरः॥ इष्टोपदेश, 50 अर्थात् जीव पौद्गलिक शरीर से भिन्न है और पुदगल जीव से भिन्न है। यही ज्ञान तत्त्व का संग्रह है। इसके अतिरिक्त जो कुछ भी कहा जाता है वह सब इसी का विस्तार है। पर से स्व का, अनुभव के स्तर पर भिन्नता का साक्षात्कार करना या दर्शन करना जैन दर्शन में भेद-विज्ञान कहा गया है। इससे ग्रन्थिभेदन होता है। पर के साथ स्व का बन्ध (सम्बन्ध) होना ही ग्रन्थि है। इस ग्रन्थि के भेदन का अनुभव ही सम्यग्ज्ञान है, सच्चा स्वाध्याय है। भेदविज्ञान से जैसे-जैसे पर के सम्बन्ध का छेदन होता जाता है, वैसे-वैसे साधक स्वतः स्व में स्थित (स्थिर) होता जाता है, अर्थात् स्व-स्थ होता जाता है। स्व-स्थ होना ही ध्यान है। स्वाध्याय से ध्यान की सिद्धि होती है और ध्यान से कायोत्सर्ग (देहातीत अवस्था) की सिद्धि होती है। स्व-स्थ होना नीरोगता, निर्विकारता का द्योतक है। विकार का ही दूसरा नाम पाप या दुष्कर्म है। विकार कायोत्सर्ग से कर्म-निर्जरा 71 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001217
Book TitleKayotsarga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size7 MB
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