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केवल कल्पना मात्र है। चतुर्थ, शरीर और संसार के बिना भी किसी का अस्तित्व रहता है, इसका क्या प्रमाण है? यदि है तो वह अस्तित्व कैसा होता है? उसमें क्या उपलब्धि होती है जिससे उसे प्राप्त करने के लिए प्रयत्न किया जाए? प्राप्त इन्द्रिय सुख को छोड़, अप्राप्त अज्ञात, काल्पनिक सुख की आशा व प्रयत्न करना कौनसी बुद्धिमानी है? आत्मारहित शरीर मृत हो जाना है, क्रिया रहित, अक्रिय होना अकर्मण्य हो जाना है, विषय-सुखों का त्यागना सुख से वंचित होना है; ज्ञात को छोड़ अज्ञात काल्पनिक सुख के लिए प्रयत्नशील होना जल को मथकर घृत निकालना है। ये सब किसी भी व्यक्ति के इष्ट नहीं हो सकते, अतः मात्र धोखा हैं, माया-जाल हैं, भ्रम हैं।
समाधान-प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में प्रतिदिन तीन अवस्थाएँ आती हैं। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति (गहरी निद्रा)। जाग्रत और स्वप्न में शरीर और संसार से अर्थात् दृश्य जगत् से सम्बन्ध जुड़ा रहता है, इनमें व्यक्ति प्रवृत्ति (क्रिया) करके अपनी कामना पूरी करता है और सुख भोगता है, कामना पूरी नहीं होने पर दुःखी होता है, दुःख भोगता है। इन दोनों अवस्थाओं में सुख-दुःखयुक्त जीवन रहता है। परन्तु प्रवृत्ति व क्रिया में शक्ति का व्यय होता है, इससे शक्तिहीनता आती है, जो थकावट के रूप में प्रकट होती है। इस शक्तिहीनता, थकावट को मिटाने के लिए विश्राम की आवश्यकता होती है। विश्राम पाने के लिए व्यक्ति सब क्रियाएँ व प्रवृत्ति बन्द करके निद्रा लेता है। निद्रा में स्वप्न आते हैं, स्वप्न में शरीर तो कार्य नहीं करता है परन्तु मन और बुद्धि सक्रिय रहते हैं और स्वप्न में भी जाग्रत के समान सुख-दुःख भोगते हैं, उससे थकने पर सुषुप्ति अवस्थागहन निद्रा आती है। इसमें मन-बुद्धि भी कार्य करना बन्द कर देते हैं, पूर्ण अक्रिय अवस्था हो जाती है। अर्थात् जाग्रत और स्वप्न ये दोनों अवस्थाएँ सुषुप्ति में विलीन हो जाती हैं। जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं का ज्ञान जाग्रत
और स्वप्न में भी रहता है, परन्तु सुषुप्ति का ज्ञान सुषुप्ति अवस्था में स्पष्ट नहीं होता है, मैं सोता हूँ-ऐसा 'मैं' का भास भी नहीं होता है। परन्तु जब पुनः जाग्रत अवस्था आती है तो मुझे सुखपूर्वक निद्रा आयी-ऐसी स्मृति होती है। इससे यह सिद्ध होता है कि सुषुप्ति अवस्था में सुख की अनुभूति होती है, क्योंकि स्मृति उसी की होती है जिसकी पहले अनुभूति हुई हो। आशय यह है कि सुषुप्ति अवस्था में दृश्य जगत्, शरीर और संसार से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है तथा तन, मन, वचन, बुद्धि आदि सब कार्य, क्रिया-प्रवृत्ति करना बन्द कर देते हैं, परन्तु शरीर शव नहीं हो जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि शरीर और संसार से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाने तथा सब प्रकार की क्रियाओं से रहित होने से शरीर
कायोत्सर्ग-व्युत्सर्ग : देहातीत होना 63
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