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________________ सुख देह पर आधारित हो जाता है। किन्तु देह से प्राप्त होने वाले सुख से उसे कभी तृप्ति नहीं होती है। अतः वह सुख प्राप्ति के लिए नयी-नयी कामनाएँ करता रहता है। उसके देह का अन्त हो जाता है परन्तु कामनाओं का अन्त नहीं होता है। कामनाएँ शेष रह जाती हैं। कामनाओं की पूर्ति देह के बिना सम्भव नहीं है। अतः प्राकृतिक नियम से शेष कामनाओं को पूरी करने के लिए उसे पुनः देह धारण करना पड़ता है, नया जन्म लेना पड़ता है। इस नये जन्म में भी पुनः वही स्थिति बनती है। इस नये जन्म में भी सुख-पूर्ति के लिए की गई कामनाओं का अन्त नहीं होता है और देहान्त हो जाता है। परिणामस्वरूप पुनः देह धारण करना पड़ता है। इस प्रकार जन्म-मरण का, आवागमन का संसार-चक्र चलता रहता है और उसे रोग-शोक, जरा-मरण आदि का दुःख झेलना पड़ता है। इन सबका कारण देह को 'मैं' मानना मिथ्या मान्यता है। देह को 'मैं' मानना मिथ्या धारणा मात्र है, वास्तविकता नहीं है। कारण कि देह और देही में स्वरूप की एकता नहीं है, प्रत्युत भिन्नता है। क्योंकि देह में जानने व अनुभव करने की क्षमता या गुण नहीं है। किसी के देह से यदि हाथ, पैर आदि कोई अंग किसी दुर्घटना में कट जाये, तो उस कटे हुए अंग को चीरने, जलाने से उस अंग को न तो कष्ट का अनुभव होता है और न ज्ञान ही होता है। इससे स्पष्ट है कि देह में जानने व अनुभव करने की क्षमता नहीं है। उस अंग के अलग होने के कष्ट का अनुभव और ज्ञान देही को होता है। जिस तत्त्व को अनुभव व ज्ञान होता है वह चेतन या आत्मा या जीव कही जाती है। जिस तत्त्व या पदार्थ को अनुभव व ज्ञान नहीं होता है वह अचेतन या अजीव कहा जाता है। इस दृष्टि से देह अजीव है और देही-आत्मा या मैं जीव है। अजीव को मैं या जीव मानना सबसे बड़ी भूल है, मिथ्यात्व है। यह मिथ्यात्व ही अन्य समस्त दोषों की जड़ है। देह और देही-आत्मा का भिन्नत्व अनुभव किया जाना कायोत्सर्ग है। जिज्ञासा-कायोत्सर्ग में आत्मा का शरीर और संसार से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है, ऐसा कहा जाता है। इससे अनेक जिज्ञासाएँ उत्पन्न होती हैं-प्रथम, शरीर और संसार से आत्मा अलग हट जाती है तो आत्मरहित शरीर तो शवलाश होती है। दूसरा, मन, वचन और तन, इन सबकी प्रवृत्ति क्रियारहित होने पर कायोत्सर्ग होता है तो सब क्रियारहित होने पर तो शरीर शव हो जाता है-शव क्रिया नहीं करता है। तृतीय, शरीर और संसार से जुड़े रहने से और क्रिया करने से क्षणिक सुख तो मिलता है, उससे अलग होने पर तो यह क्षणिक सुख भी खो जाता है, शरीर और इन्द्रिय के बिना भी सुख मिलता है तो वह कौनसा सुख है, 62 कायोत्सर्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001217
Book TitleKayotsarga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size7 MB
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