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जिस परम-तत्त्व को साक्षात् गुरु भी कहने में समर्थ नहीं है कि 'वह यह है', वही परम-तत्त्व उदासीन भाव में परायण योगी के लिए स्वयं ही प्रकाशित हो जाता है। उन्मनी भाव
एकान्तेऽति-पवित्रे रम्ये देशे सदा सुखासीनः । आ चरणान-शिखाग्राच्छिथिलोभूताखिलावयवः।। रूपं कान्तं पश्यन्नपि शृण्वन्नपि गिरं कलमनोज्ञाम्। जिघ्रन्नपि च सुगन्धीन्यपि भुजानो रसास्वादम्।। भावान् स्पृशन्नपि मृदूनवारयन्नपि च चेतसो वृत्तिम्। परिकलितौदासीन्यः प्रणष्ट-विषय-भ्रमो नित्यम्॥ बहिरन्तश्च समन्ताच्चिन्ता-चेष्टापरिच्युतो योगी।
तन्मय-भावं प्राप्तः कलयति भृशमुन्मनी-भावम्॥ एकान्त, अत्यन्त पवित्र और रमणीय प्रदेश में सुखासन से बैठा हुआ योगी पैर के अंगूठे से लेकर मस्तक के अग्रभाग पर्यन्त के समस्त अवयवों को ढीला करके कमनीय रूप को देखता हआ भी, सुन्दर और मनोज्ञ वाणी को सुनता हुआ भी, सुगन्धित पदार्थों को सूंघता हुआ भी, रस का आस्वादन करता हुआ भी, कोमल पदार्थों का स्पर्श करता हुआ भी और चित्त के व्यापारों को न रोकता हुआ भी उदासीन भाव से युक्त है-पूर्ण समभावी है तथा जिसने विषयों सम्बन्धी आसक्ति, विषयों को सुन्दर, सुखद और स्थायी मानने का परित्याग कर दिया है, जो बाह्य और आन्तरिक चिन्ता एवं चेष्टाओं से रहित हो गया है, तम्मय भाव-तल्लीनता को प्राप्त करके अतीव उन्मनी भाव को प्राप्त कर लेता है।
गृह्णन्ति ग्राह्याणि स्वानि स्वानीन्द्रियाणि नो रुन्ध्यात्।
न खलु प्रवर्तयेद्वा प्रकाशते तत्त्वमचिरेण ।। साधक अपने-अपने विषय को ग्रहण करती हुई इन्द्रियों को न तो रोके और न उन्हें प्रवृत्त करे। वह केवल इतना ध्यान रखें कि विषयों के प्रति राग-द्वेष उत्पन्न न होने दे। वह प्रत्येक स्थिति में तटस्थ बना रहे। इस प्रकार की उदासीनता प्राप्त हो जाने पर अल्पकाल में ही तत्त्वज्ञान प्रकट हो जाता है।
मनःशान्ति
चेतोऽपि यत्र यत्र प्रवर्तते नो ततस्ततो वार्यम्। अधिकीभवति हि वारितमवारितं शान्तिमुपयाति ॥
कायोत्सर्ग और अमनस्क साधना 47
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