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पुंसामयत्नलभ्यं ज्ञानवतामव्ययं पदं नूनम।
यद्यात्मन्यात्मज्ञानमात्रमेते समीहन्ते। प्रबुद्ध पुरुष निश्चय ही बिना किसी बाह्य प्रयत्न के भी अव्यय-निर्वाण पद का अधिकारी हो सकता है। यदि वह आत्मा में आत्मज्ञान की ही अभिलाषा रखता है और आत्मा के सिवाय किसी भी अन्य पदार्थ सम्बन्धी विचार या व्यवहार नहीं करता है। तात्पर्य यह है कि पूर्ण आत्मनिष्ठ हो जाता है तो उसे मुक्ति के लिए अन्य कोई बाह्य प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं रहती है।
श्रयते सुवर्णभावं सिद्धरसस्पर्शतो यथा लोहम्।
आत्मध्यानादात्मा परमात्मत्वं तथाऽऽप्नोति ॥ जैसे सिद्धरस-रसायन के स्पर्श से लोहा स्वर्ण बन जाता है, उसी प्रकार आत्मा का ध्यान करने से आत्मा परमात्मा बन जाता है।
प्राणायाम-प्रभृति-क्लेश-परित्यागतस्ततो योगी।
उपदेशं प्राप्य गुरोरात्माभ्यासे रतिं कुर्यात्॥ प्राणायाम आदि कष्टकर उपायों का परित्याग करके योगी को गुरु का उपदेश प्राप्त कर आत्म-साधना में ही संलग्न रहना चाहिए।
औदासीन्य-परायण-वृत्तिः किञ्चिदपि चिन्तयेन्नैव।
यत्संकल्पाकुलितं चित्तं नासादयेत् स्थैर्यम्॥ योगी को चाहिए कि वह अपनी वृत्ति को उदासीनतामय बना ले और किंचित् भी चिन्तन-संकल्प-विकल्प न करे। जो चित्त संकल्पों से व्याकुल होता है, उसमें स्थिरता नहीं आ सकती।
यावत्प्रयत्नलेशो यावत्संकल्प-कल्पना काऽपि।
तावन्न लयस्यापि प्राप्तिस्तत्त्वस्य का तु कथा।। जब तक मानसिक, वाचिक या कायिक प्रयत्न का अंश मात्र भी विद्यमान है और जब तक कुछ भी संकल्प वाली कल्पना मौजूद है, तब तक लयतल्लीनता की भी प्राप्ति नहीं हो सकती है, तो ऐसी स्थिति में तत्त्व की प्राप्ति की तो बात ही दूर? उदासीनता का फल
यदिदं तदिति न वक्तुं साक्षाद् गुरुणाऽपि हन्त शक्येत्। औदासीन्यपरस्य प्रकाशते तत्स्वयं तत्त्वम्।।
46 कायोत्सर्ग
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