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________________ कायोत्सर्ग : ध्यान की पूर्णता ध्यान में चित्त स्थिर, एकाग्र होता है। मन के एकाग्र होने से चित्त का निरोध होता है। चित्तवृत्ति का निरोध ही योग है। योग की पराकाष्ठा समाधि है। समाधि की उपलब्धि संयम, तप व व्यवदान से होती है। संयम से आसव का निरोध होता है। आसव के निरोध से नवीन कर्मों का बन्ध रुकता है।' तप से व्यवदान होता है। व्यवदान से साधक अक्रियता प्राप्त करता है। अक्रिया युत होकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो जाता है, परम शान्ति को प्राप्त होकर सर्वदुःखों का अन्त कर देता है। ... देह के आश्रय रहते कायोत्सर्ग, देहातीत होना सम्भव नहीं है। कायोत्सर्ग या देहातीत होने के लिए देह के आश्रय से ऊपर उठना होता है। जो तन, वचन और मन, इन तीनों की अक्रियता से ही सम्भव है। (जैसा कि कायोत्सर्ग के पाठ में कहा है।) कारण कि क्रिया मन, वचन व काया से होती है। क्रिया कोई भी हो, वह हलचल, चंचलता तथा अस्थिरता उत्पन्न करती है। कायोत्सर्ग में काया, वचन व मन की क्रिया का निरोध कर इन्हें निश्चल व स्थिर किया जाता है जैसा कि कायोत्सर्ग करने के पाठ 'तस्स उत्तरी करणेणं' के अन्त में कहा गया ताव कायं ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि अर्थात् जब तक मैं कायोत्सर्ग करता हूँ तब तक काया को स्थिर, वचन से मौन और मन को ध्यानस्थ-आत्मस्थ रखेंगा। अर्थात् काया, वचन तथा मन से कोई भी क्रिया नहीं करूंगा। जैसा कि ध्यानाध्ययन (ध्यान शतक) ग्रन्थ में, षट्खण्डागम की धवला टीका, पुस्तक 13 में तथा आदि पुराण में कहा है - 1. ध्यान-शतक, गाथा - 2 2. उत्तराध्ययन, अ. 29, सूत्र 25 3. पतंजलि योग, 1-2 4. उत्तराध्ययन, अ. 29, सूत्र 27 5. उत्तराध्ययन, अ. 29, सूत्र 27 6. उत्तराध्ययन, अ. 29, सूत्र 29 34 कायोत्सर्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001217
Book TitleKayotsarga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size7 MB
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