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कायोत्सर्ग में चित्त निर्विकल्प होता है जिससे चिन्मयता का अनुभव होता है । ध्यान में चित्त का आश्रय रहता है जबकि कायोत्सर्ग सर्वांश में आश्रय से रहित होता है । आश्रय रहते हुए संसार व शरीर से सम्बन्ध जुड़ा रहता है । कायोत्सर्ग से सर्वांश में आश्रय रहित होने पर ही देह, इन्द्रिय, लोक-संसार आदि से अतीत अवस्था सम्भव है अर्थात् देहातीत, इन्द्रियातीत, लोकातीत (अलौकिक ) निज स्वरूप में स्थिति सम्भव है। यह ही मुक्त अवस्था है । आज तक कोई भी मुक्त हुआ वह कायोत्सर्ग, व्युत्सर्ग से ही हुआ है ।
ध्यान और कायोत्सर्ग में भेद इस प्रकार है, यथा :
ध्यान में विरक्ति होती है, कायोत्सर्ग में वीतरागता होती है ।
ध्यान कारण है और कायोत्सर्ग उसका कार्य है।
ध्यान में निज अविनाशी स्वरूप का चिन्तन होता है, कायोत्सर्ग में निज स्वरूप का अनुभव होता है
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ध्यान की सिद्धि से कायोत्सर्ग होता है, अतः ध्यान साधन है और कायोत्सर्ग साध्य | साधन को साध्य मान लेना साधन में अटक जाना है, साध्य से वंचित रहना है।
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ध्यान और कायोत्सर्ग में एकता व भिन्नता 33
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