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है, जो शरीर और संसार की दासता में आबद्ध कर देती है। विवेक के प्रकाश में देखने से इनकी अनित्यता का बोध होता है, जिससे इनसे विरक्ति होती है। विरक्ति इनकी आसक्ति को क्षीण कर इनकी दासता से मुक्त कर देती है। दासता से सर्वांश में मुक्त होते ही स्वाधीनता की अभिव्यक्ति होती है। यह ही मुक्ति की अनुभूति है। यह ही साधक का सिद्धत्व प्राप्त करना है।
पहले कह आए हैं कि व्युत्सर्ग का अर्थ है सम्बन्ध रहित होना, असंग होना, अतीत होना। स्वानुभूति होने पर अर्थात् निज-स्वरूप का बोध होने पर देह से असंगता हो जाती है अर्थात् देहातीत अवस्था हो जाती है। इसे व्युत्सर्ग व कायोत्सर्ग कहा है। विषय-भोगों से अर्थात् संसार से और कषाय से असंगता हो जाने से इसे संसार-व्युत्सर्ग व कषाय-व्युत्सर्ग कहा है। भोक्ता व कर्ता भाव का अभाव होने से इसे कर्म-व्युत्सर्ग भी कहा है। भोगेच्छा का अभाव हो जाने से संसार से कुछ भी सुख पाने की इच्छा शेष नहीं रहती। जिससे प्रवृत्ति, क्रिया या योग का अभाव हो जाता है, जिससे कर्म का प्रकृति तथा प्रदेश बंध होना बंद हो जाता है और कषाय का अभाव हो जाने से कर्म का स्थिति व अनुभाग बंध नहीं होता है। इस प्रकार कायोत्सर्ग से साधक के चारों प्रकार का बंध रुक जाता है। सुख की दासता और दुःख का भय मिट जाने से वीतराग अवस्था में सुख-दुःख से अतीत परमानन्द, सच्चिदानंद का अनुभव होता है। दुःख का भय नहीं रहने से असातावेदनीय का बंध होना बन्द हो जाता है और स्वतःस्फूर्त सातावेदनीय का बन्ध भी अबंध तुल्य ही होता है। इस प्रकार कायोत्सर्ग में काया आदि बाह्य साधनों, विषय-भोगों, कषायों, कर्म-बंध आदि से अलिप्तता, असंगता रूप व्युत्सर्ग हो जाता है। उसे किसी प्रकार के संगठन या गण की आवश्यकता नहीं रहने से गणव्युत्सर्ग हो जाता है। बाह्य साधन-सामग्री या उपधि तथा भोजन आदि की निर्भरता नहीं रहने से उपधिव्युत्सर्ग एवं भक्तपान व्युत्सर्ग स्वतः हो जाता है।
व्युत्सर्ग से निज-स्वरूप का बोध हो जाने पर कर्ताभाव न रहने से मन, वचन, काया की क्रियाएँ करने का संकल्प नहीं रहता है। निःसंकल्प होने के पश्चात् इनकी क्रिया नैसर्गिक रूप में होने लगती है, मुमुक्षु साधक के कल्याण के लिए स्वाभाविक रूप से स्वतः प्रकट होती है।
यह नियम है कि जब किसी क्रिया में कर्तृत्वभाव, अहंभाव का अन्त हो जाता है, जो क्रिया अहंभाव से उत्पन्न नहीं होती, उसमें आसक्ति व राग नहीं होता, इसलिये उसका रस अंकित नहीं होता अर्थात् उसका रसबंध नहीं होता। निर्वासना होने पर चिन्तन रूप प्रवृत्ति शेष नहीं रहती। चित्त शान्त हो जाता है। शान्त चित्त 28 कायोत्सर्ग
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