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________________ किसी भी जीव को स्वयं अपने हाथ से, अथवा दूसरे के हाथ से प्राणरहित करते, टुकड़े-टुकड़े करते देखकर, लोहे की शृंखला-बेड़ियों मे बाँधते, रस्सी आदि से बाँधते देखकर, कोठरी, तलघर, कारागृह आदि में कैद करते देखकर, कान, नाक, पूँछ, सींग, हाथ, पाँव, चमड़ी, नख आदि किसी भी अंगोपांग का छेदन-भेदन करते देखकर, कत्लखाने में जीवों का वध होता देखकर एवं उनका करुणापूर्ण आक्रंदन सुनकर, टुकड़े होने पर उनको तड़पते देखकर आदि अनेक प्रकार से जीवों को दुःख देते देखकर या उनका वध होते देखकर आनन्द मानना; 'बहुत अच्छा हुआ, इसे मारना ही चाहिये था, बंधन में डालना ही चाहिये था, इसे फाँसी-शूली देना ही चाहिये था; बड़ा जुल्मी था, बचता तो गजब कर डालता, मर गया तो अच्छा ही हुआ' आदि चिन्तन करना, बोलना व इसमें हर्षित होना भी हिंसानुबंधी रौद्र ध्यान है। • मृषानुबन्धी रौद्र ध्यान का निरूपण करते हैं---- पिसुणासब्भासब्भूय - भूयघायाइवयणपणिहाणं। मायाविणोऽइसंधणपरस्स पच्छन्नपावस्स ।। 20 ।। मायावी, दूसरे को ठगने में प्रवृत्त तथा अपना पाप छिपाने के लिए तत्पर जीव के पिशुन-अनिष्ट सूचक वचन, असभ्य वचन, असत्य वचन तथा प्राणीघात करने वाले वचनों में प्रवृत्त न होने पर भी उनके प्रति दृढ़ अध्यवसाय का होना रौद्र ध्यान का 'मृषानुबन्धी' नामक द्वितीय प्रकार है। व्याख्या : मायाचारी व परवंचना (दूसरों के ठगने) में तत्पर, प्रच्छन्न (अदृश्य) पाप युक्त अन्तःकरण वाले जीव के पिशुन वचन, असभ्य वचन, असद्भूत वचन और भूतघात करने वाले वचनों में प्रवृत्त न होने पर भी जो उनके प्रति दृढ़ अध्यवसाय होता है, वह मृषानुबंधी रौद्र ध्यान है। मैं असत्य और वाणी की चतुराई से लोगों को मोहित कर उनके पास से सुन्दर कन्या, रत्न, धन, धान्य, गृह-घर आदि ग्रहण कर लूँगा और मैं अपने जीवन को सुख से चलाऊँगा इत्यादि अनेक प्रकार के असत्य विचारों का उत्पन्न होना ही मृषानुबंधी रौद्र ध्यान है। पुराने वस्त्रों को रंग आदि के प्रयोग से नवीन बताकर बेचना; कोई गुप्त धन, आभूषण आदि अमानत रूप से रखा गया हो तो उसको दबा लेना; झूठी गवाही देना; झूठे कागजों के आधार से दूसरे के धन, मकान आदि का अपहरण करना 72 ध्यानशतक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001216
Book TitleDhyanashatak
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorKanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Dhyan
File Size7 MB
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