________________
ग्रन्थकार ने रौद्र ध्यान के भेदों द्वारा ही उसे परिभाषित किया है । सामान्यतया क्रूरतायुक्त चिन्तन व कार्य रौद्र ध्यान हैं। विषय सुख में गृद्ध व्यक्ति कर्तव्य - अकर्तव्य का भान भूलकर क्रूर हृदय वाला होकर स्व-पर अहितकर कार्य करता है वह रौद्र ध्यान है जो हिंसानुबन्धी, मृषानुबन्धी, अदत्तानुबन्धी, परिग्रहानुबन्धी— चार प्रकार का है।
जिसका चित्त रौद्र ध्यान से व्याप्त रहता है, वह दूसरे की विपत्ति में हर्षित रहता है, उसकी क्षति के प्रति उपेक्षित एवं दया- विहीन रहता है तथा इसके लिये पश्चात्ताप भी नहीं करता है । वह पापाचरण करके हर्षित होता है। जो क्रूर आशय–परिणाम वाला, नीच विचारों वाला प्राणी होता है, उसे रुद्र कहा जाता है । जैसे मदिरापान करने से मनुष्य की बुद्धि विकल हो जाती है और वह विशेष रूप से क्रूर कर्मों में ही आनन्द मानता है, वैसे ही प्रत्येक संसारी जीव अनादिकाल से कर्म रूप मदिरा के नशे में पागल बना हुआ कुकर्मों को करने में
आनन्द मानता है । उन कुकर्मों को करते समय जीव के अन्तःकरण में जो क्रूर विचार आते हैं, उन्हें ही तत्वज्ञ पुरुषों ने 'रौद्र भयानक ध्यान' कहा है ।
अतिशय क्रोधरूप पिशाच के वशीभूत होकर निर्दय, क्रूर अन्तःकरण वाले जीव का प्राणियों के वध, वेध, बन्धन, दहन, अंकन और मारण आदि का संकल्प करना, उक्त कार्यों को न करते हुए भी उनको करने का जो दृढ़ विचार होता है, यह हिंसानुबंधी नामक प्रथम रौद्र ध्यान है । इसका विपाक अधम (निकृष्ट) है, उसके परिणास्वरूप नरकादि दुर्गति प्राप्त होती है ।
चाबुक आदि से ताड़ित करना, इसका नाम वध है । कील आदि के द्वारा नासिका आदि के वेधने को वेध कहा जाता है। रस्सी आदि से बाँधकर रखना, यह बन्धन कहलाता है। आग आदि से जलाने को दहन कहते हैं । तपी हुई लोहे की शलाका आदि से दागने (चिह्नित करने) का नाम अंकन है । पीटना तथा प्राणान्त करना मारण है
1
छेदन, भेदन, ताड़न, बन्धन, प्रहार, दमन आदि प्रवृत्ति करना, इन कामों में अनुराग रखना अथवा इन कामों को देखकर दया नहीं लाना —— यह सब हिसानुबंधी रौद्र ध्यान है।
दुःख किसी को भी प्रिय नहीं है । अनाथ, असहाय, निर्बल, पराधीन, निराधार और असमर्थ जीव, दीन और दुःखी हो जाते हैं। ऐसे दयनीय, असमर्थ जीवों को स्वार्थ से अथवा बिना स्वार्थ से दुःख देना, दुःख से पीड़ित को देखकर हर्ष मानना, यह सब हिंसानुबंधी रौद्र ध्यान है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
ध्यानशतक 71
www.jainelibrary.org