SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -यह संसार का वर्णन, उसकी असारता का चिन्तन और संसार का त्यागलोकविजय की अनुशासन पद्धति है, जिससे 'अणुवेक्खा' का जन्म हुआ प्रतीत होता है । 'संसार लुभाने वाला है' और 'संसार बाँधने वाला है'-- इस वर्णन से 'अणुपेहा' के चार पारिभाषिक शब्द जैसे 'अनन्तवट्टियं' अथवा 'भवसंताणमणन्तं'; 'विपरिणामं'; 'संसारासुहाणुभात्तं', 'आसवदारावाए' (आस्रवों के अपाय का चिन्तन) बने। इनमें से अनन्तवर्तिता, विपरिणाम प्रारम्भिक स्थिति रही होगी जिन्हें बाद में शुक्ल ध्यान से जोड़ दिया गया होगा । 84 तब क्रमशः संसार- अनुप्रेक्षा का विकास हुआ। इन तीन के आधार पर चौथी अशुभ अनुप्रेक्षा (संसार अशुभ है इस भाव से) रखी गई जिसका नाम अशुचि (शरीर के अशुचि होने के लिए) के रूप में स्थिर हुआ । शारीरिक अशुचि और ज्ञान दुर्लभ होने से क्रमशः अशुचि अनुप्रेक्षा और बोधि दुर्लभ अनुप्रेक्षा नाम पड़े। ब्राह्मण साहित्य में भी शारीरिक अशुचि के उल्लेख उपलब्ध हैं । अनुप्रेक्षा के सम्बन्ध में संसार की दशा के वर्णन के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता । धर्म ध्यान के संस्थान विचय और अनुप्रेक्षा के 'लोग' तत्त्व की विषयवस्तु समान है किन्तु प्रयोजन भिन्न है । संसार के वर्णन में लोग का निरूपण लोक की रचना बताना था कि ऊर्ध्व-मध्य-अधोलोक की गतियों में स्थानान्तरण होता हैलोगस्स अहे उद्धं, तिरियं भागं जाणइ गढिए अणुपरिवट्टमाणे.. आचाराङ्ग सूत्र 2/5/4 द्वादश अनुप्रेक्षाओं में अणिच्च, असरण, एगत्त, असुचि (संसार), अण्ण आदि जीव तथा संसार के स्वरूप को अभिव्यक्त करती हैं, उनमें भी अणिच्च, असरण, असुचि प्रमुखतया जीव शरीर से सम्बद्ध हैं। एगत्त को असरण से उद्भूत माना जा सकता है और 'अण्ण' (अन्यत्व) का उद्भव शरीर की असुचि से हुआ, क्योंकि जीव शरीर (अशुचि) से भिन्न (अण्ण) है । आगमों में भी एगत्त अनुप्रेक्षा कभी असरण के साथ तो कभी अण्ण के साथ मिली हुई है। अनुप्रेक्षा द्वारा ध्यान करने की पद्धति में आसव (आस्रव), संवर, णिज्जरा (निर्जरा) अन्त में जुड़े। इन तीनों का अनुप्रेक्षा के रूप में प्रयोग तब हुआ जब धम्म और बोहि को अनुप्रेक्षा के रूप में स्वीकार किया । परवर्ती शास्त्रों में भारतीय दर्शन में धर्म को स्वीकार किया और आस्रव संवर- निर्जरा प्रभावी नहीं रहे, किन्तु 12 अनुप्रेक्षाओं में उनका स्थान बना रहा। अनुप्रेक्षा में संसार से विरक्ति का भाव प्रमुख रहा । Jain Education International - For Private & Personal Use Only प्रस्तावना 45 www.jainelibrary.org
SR No.001216
Book TitleDhyanashatak
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorKanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Dhyan
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy