SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समाधि सम्भव नहीं है— 'वित्तिगिच्छासमावण्णेणं अप्पाणेणं णो लभइ समाहिं । 81 जिसकी तृष्णा शान्त हो गई है ऐसा मुनि जब श्रेष्ठ धर्म का ध्यान करता है तब समाहित उस मुनि के अग्निशिखा के समान तप-प्रज्ञा- यश (संयम / कीर्ति) की वृद्धि होती है। ध्यान से तप की सामर्थ्य बढ़ती है, प्रज्ञा विकसित होती है। और संयम (आत्मा की शुद्धि) की वृद्धि होती है 182 आयतचक्षु (द्रष्टा ) साधक लोक का ध्यान करता था । लोक ध्यान अन्तःचक्षु द्वारा (अन्तः द्रष्टा बनकर ) शरीर के भीतर अशुचि दर्शन तथा अनित्य दर्शन से वैराग्य भाव पुष्ट करने का ध्यान था । भारतीय दर्शन की ब्राह्मण, बौद्ध या जैन दर्शन परम्परा हो, सभी में संसार को असार (हेय) बताया गया है और आध्यात्मिक जीवन जीने हेतु सांसारिक आसक्ति के त्याग के अनुशासन हेतु कई तरीके प्रस्तुत किये हैं जिनमें पारिभाषिक पदावली में अन्तर हो सकता है, किन्तु प्रयोजन प्राय: समान ही होता है— संसार के बन्धन से मुक्ति । ब्राह्मण परम्परा में भावना तथा अनुदर्शन आत्मानुशासन के साधन बताए गये हैं। योगसूत्र ( 1/33) में चित्त की निर्मलता के लिये मैत्री आदि की भावना करने की अनुशंसा की है मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यवत्सु भावनातः चित्तप्रसादनम् । - भगवद्गीता (13/8 ) में भक्तों को निर्देश दिया गया है कि वे संसार के भोगों से प्राप्त जन्म-मरण - जरा रोग में दुःख और दोषों का अनुदर्शन करें। विष्णुपुराण (6/7) में चित्त की एकाग्रता के लिये तीन प्रकार की भावना का उपदेश दिया गया है— ब्रह्म भावना, कर्म भावना और भाव भावना । आचाराङ्ग (भाग-2, अध्याय 15) के भावना अध्ययन में श्रमणाचार की 25 भावनाओं का वर्णन किया गया है। जैन दर्शन में अणुवेक्खा (अनुप्रेक्षा) का उल्लेख सर्वप्रथम प्राचीन आगम आचाराङ्ग के लोगविचय (लोकविचय) नामक द्वितीय अध्याय के छठे उद्देशक में है । इस लोकविचय अध्याय में 'संपेहाए' का प्रयोग कई बार हुआ है जिसका अर्थ है संप्रेक्षा करें, भली प्रकार से ध्यान रखें, संसार के स्वरूप की संप्रेक्षा करें, संसार का त्याग करें और श्रमण बनें । 'विचय' शब्द ध्यान के प्रसङ्ग में आज्ञाअपाय-विपाक-संस्थान के साथ जुड़कर रूढ़ हो गया । 'विचय' शब्द का प्रयोग आज्ञा-विचय आदि से अलग स्वतन्त्र रूप से जैन शास्त्रों में नहीं देखा जाता है । 44 ध्यानशतक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001216
Book TitleDhyanashatak
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorKanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Dhyan
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy