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________________ और 2. विपस्सना। समथ का अर्थ है प्रशान्ति। पालि में पस्सदि का संस्कृत रूपान्तर प्रश्रब्धि है। चित्त की प्रशान्ति चित्त की एकाग्रता से सम्बद्ध है तथा विपस्सना का अर्थ है विशेष रूप से अन्त: की ओर देखना, जिससे संवेदनाओं के माध्यम से शरीरादि की अनित्यता का बोध होकर चित्त-निरोध, चित्त का भेदन, अविद्या का निवारण होता है। विशेषावश्यक भाष्य नियुक्ति में भी चित्त को एकाग्र करने या निरोध करने को ध्यान कहा है- 'जइ एगग्गं चित्तं धारयओ वा निरूंभओ वा वि । झाणं होइ ननु... ।।' समस्त शुभ अथवा अशुभ मानसिक प्रवृत्तियों में ध्यान अथवा समाधि अथवा एकाग्रता का होना बौद्धसम्मत अभिधर्म और पातञ्जल योगसूत्र दोनों में स्वीकार किया है। जैन दर्शन में भी अशुभ ध्यान के अन्तर्गत आर्त एवं रौद्र ध्यान तथा शुभ ध्यान के अन्तर्गत धर्म एवं शुक्ल ध्यान को स्वीकार किया है। स्वभावत: चित्त चंचल होता है, अत: चित्त का जब किसी एक वस्तु में स्थिर अध्यवसान होता है तब उसे ध्यान कहा जाता है । ध्यान से कर्मक्षय की परम्परा मोक्ष या निर्वाण का मार्ग है । देह को आत्मा मानने की समाप्ति और आत्मदर्शन की युक्ति ध्यान है इसलिये ध्यान कर्म से अकर्म होने की प्रक्रिया है, और अकर्म का अर्थ है कर्तृत्व का भान समाप्त होना, ज्ञाता-द्रष्टा भाव में रहना । ध्यानशतक में देहोपधिव्युत्सर्ग द्वारा स्पष्ट किया गया है कि अनासक्त ध्याता आत्मा को तथा देह-मन-वचन के योगों को पृथक्-पृथक् देखता है। __ भगवदगीता का स्पष्ट उद्घोष है कि जिसके कर्म बिना कामना और संकल्प के होते हैं, जिसके कर्म ज्ञानाग्नि से भस्म हो जाते हैं उसे ज्ञानीजन पण्डित कहते हैं। अनासक्त साधक कर्म में प्रवृत्त होने पर भी अकर्म में रहता है, करता हुआ भी कुछ नहीं करता है, उससे बंधता नहीं है। ध्यानशतक में ध्यान द्वारा कर्मदहन स्वीकार किया है, यहाँ ज्ञान द्वारा कर्मदहन । विज्ञान भिक्षु ने योगवार्तिक में कहा है कि जैसे ज्ञान से कर्म क्षय होते हैं तथैव योग (ध्यान) से भी। प्रमुखता कर्म करते हुए कर्तृत्व भाव से मुक्ति की है। यही मोक्ष का मार्ग है। इस दृष्टि से ध्यान प्रक्रिया स्वभावतः चंचल चित्त को स्थिर करने पर आधारित है। एक ध्यान की प्रणाली भावना में है; एक ध्यान की प्रणाली अनुप्रेक्षा में है; एक ध्यान की प्रणाली चिन्तन में है। 42 ध्यानशतक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001216
Book TitleDhyanashatak
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorKanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Dhyan
File Size7 MB
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