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4. चतुर्थ ध्यान चित्तेकग्गता है।
शेष चार अरूप ध्यान हैं
5. आकासानञ्चायतन समापत्ति : अनन्त आकाश में ध्यान ।
6. विञ्ञाणञ्चायतन समापत्ति : अनन्त चेतना में ध्यान ।
7. आकिञ्चणञ्चायतन- समापत्ति : शून्य में ध्यान अथवा आकिञ्चन्य में ध्यान । 8. नेव सञ्ञानासञ्ञायतन समापत्ति : जहाँ संज्ञा के होने अथवा न होने का भान नहीं हो पाता है ।
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इन ध्यानों के आगे समाधि की अवस्था 'सञ्ञावेदयितनिरोध' कहलाती हैं, जहाँ संज्ञा और संवेदनाएँ समाप्त होकर परमशक्ति की अनुभूति होती है । इस समाधि में कषाय और आस्रव क्षीण हो जाते हैं; यह लोकोत्तर समाधि है, शेष लौकिक । बौद्ध मान्यता के अनुसार भी समाधि अथवा ध्यान से कर्म अनुशय क्षय करके संसार से पार हुआ जाता है।
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जैनसम्मत ध्यान, पातञ्जल योग तथा बौद्धसम्मत समाधि में चित्त निरोध के स्वर हैं 71, तथापि ब्राह्मण, बौद्ध और जैन परम्परा में भावना के द्वारा निर्वाण प्राप्ति, धर्म जागरण, अनागामिता, संसारक्षय तथा ज्ञाता - द्रष्टाभाव के उल्लेख हैं। 72 जिनभद्र क्षमाश्रमण ने ध्यानशतक के प्रारम्भ में चिन्तन अथवा अनुप्रेक्षा अथवा भावना से चंचल चित्त को स्थिर करने पर बल दिया है और स्थिर अध्यवसान ( चित्त की स्थिरदशा) को ध्यान कहा है। एक वस्तु में लगातार चिन्तन - अनुप्रेक्षा- भावना से होने वाला ध्यान संसारीजन का सामान्यतया अन्तर्मुहूर्त काल रहता है तथापि पुनः पुनः वस्तु संक्रम से ध्यान परम्परा विस्तृत की जा सकती है । जब एक वस्तु में चित्त स्थिर हो जाता है तो वह स्थिर अध्यवसान ध्यान कहलाता है। 73
ध्यान अथवा योग को दो प्रकार से प्रस्तुत किया गया है
1. चित्त की एकाग्रता ।
2. चित्त अथवा योगों (मन-वचन-काया की प्रवृत्ति) का निरोध ।
जिनभद्र क्षमाश्रमण ने ध्यानशतक में एकाग्रता रूप ध्यान को छद्मस्थ का ध्यान कहा तथा केवली का ध्यान योग निरोध बताया। पतंजलि के योगसूत्र पर व्यासभाष्य में चित्त की एकाग्रता को सम्प्रज्ञात योग तथा सर्ववृत्ति निरोध को असम्प्रज्ञात समाधि कहा है ।
बुद्ध की शिक्षा में भी चित्त की भावना के दो मार्ग बताये हैं
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- 1. समथ
प्रस्तावना 41
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