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________________ जा सकता है। इससे तो यह ही सिद्ध होता है कि ध्यानशतक के कर्ता जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ही हैं और कर्ता के नाम के सम्बन्ध में किसी प्रकार की भ्रान्ति न हो, इसलिये परवर्तीकाल में किसी ने 106वीं गाथा जोड़कर कर्ता का नाम निर्देश कर दिया है। मात्र यही नहीं, दिगम्बर आचार्य कुन्दकुन्द मूलाचार के कर्ता आदि ने भी अपनी कृतियों में कहीं अपने नाम का निर्देश नहीं किया है, ऐसी स्थिति में क्या समयसार, मूलाचार आदि के कर्तृत्व पर भी सन्देह किया जायेगा? __ सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि सम्पूर्ण ग्रन्थ विक्रम की आठवीं शताब्दी में आचार्य हरिभद्र के समक्ष उपस्थित था। जिनभद्रगणि का काल लगभग छठी शताब्दी माना जा सकता है। जिनभद्र के पश्चात् और हरिभद्र के पूर्व जो प्रमुख श्वेताम्बर आचार्य हुए हैं उनमें तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकार सिद्धसेनगणि क्षमाश्रमण और चूर्णिकार जिनदासगणि को छोड़कर ऐसे कोई अन्य समर्थ आचार्यों के नाम हमारे समक्ष नहीं हैं, जिन्हें इस ग्रन्थ का कर्ता बताया जा सके। ये दोनों भी इसके कर्ता नहीं हैं, यह भी सुस्पष्ट है, अतः यह निर्विवाद रूप से सिद्ध है कि ध्यानशतक के रचनाकार श्वेताम्बर परम्परा के आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ही हैं। मेरी दृष्टि में इसे नियुक्तिकार की रचना मानने में भी एक कठिनाई यह है कि आवश्यकनियुक्ति में प्रतिक्रमण नियुक्ति की और कायोत्सर्ग नियुक्ति की जो गाथाएँ हैं उनसे ध्यानाध्ययन की एक भी गाथा नहीं मिलती है, वस्तुतः यह ग्रन्थ नियुक्ति के बाद का और जिनदासगणि महत्तर की चूर्णियों के पूर्व भाष्यकाल की रचना है, अतः इसके कर्ता विशेषावश्यक भाष्य के कर्ता जिनभद्रगणि ही होने चाहिए। जहाँ तक झाणाज्झयण के नियुक्तिकार भद्रबाहु की रचना मानने का प्रश्न है, इस सम्बन्ध में हमारे पास में कोई भी ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं है। केवल यह मान करके कि आचार्य हरिभद्र ने आवश्यक नियुक्ति की व्याख्या में इसे समाहित किया है, मात्र इसी आधार पर इसे नियुक्तिकार की रचना नहीं माना जा सकता है, क्योंकि आचार्य हरिभद्र ने आवश्यकनियुक्ति की टीका में अन्य-अन्य ग्रन्थों के भी सन्दर्भ दिये हैं और जिनके कर्ता निश्चित ही नियुक्तिकार नहीं हैं। अत: आचार्य हरिभद्र की टीका में उद्धृत होने मात्र से इसे नियुक्तिकार की रचना मानना सम्भव नहीं है। नियुक्तियों के बाद में भाष्यों और चूर्णि का काल आता है और प्रस्तुत कृति हरिभद्र के पूर्व होने से उसे भाष्यकार की रचना मानना ही उपयुक्त है, क्योंकि चूर्णियाँ तो प्राकृत गद्य में लिखित हैं, अतः उनकी शैली भिन्न भूमिका 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001216
Book TitleDhyanashatak
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorKanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Dhyan
File Size7 MB
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