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• ध्यान से मानसिक दुःख का अभाव प्रस्तुत करते हैं:न कसायसमुत्थेहि य बाहिज्जइ माणसेहिं दुक्खेहि। ईसा-विसाय-सोगाइएहिं झाणोवगयचित्तो ।। 104 ।। जिसका चित्त ध्यान में संलग्न है वह व्यक्ति क्रोधादि कषायों से उत्पन्न होने वाले ईर्ष्या, विषाद और शोक आदि मानसिक दु:खों से पीड़ित नहीं होता।
व्याख्या :
क्रोध, मान, माया, लोभ, कषाय से ही ईर्ष्या, विषाद, शोक, विनय, अभाव, तनाव, हीनभाव, द्वन्द्व आदि मानसिक व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं। शुभ ध्यान में कषाय के क्षीण होने से ध्यानी साधक इन व्याधियों से पीड़ित नहीं होता है।
• ध्यान से शारीरिक दुःख का अभाव प्रस्तुत करते हैं:सीयाऽऽयवाइएहि य सारीरेहिं सुबहप्पगारेहिं। झाणसुनिच्चलचित्तो न ब (बा) हिज्जइ निज्जरापेही ।। 105 ।। जिसका चित्त ध्यान के द्वारा अतिशय स्थिर हो गया है, वह मुनि कर्मनिर्जरा की अपेक्षा रखता हुआ शीत व उष्ण आदि बहुत प्रकार के शारीरिक दुःखों से - पीड़ित नहीं होता।
व्याख्या :
ध्यान में चित्त शान्त व स्थिर होने से कर्मों की निर्जरा होती है एवं मानसिक रोगों की पीड़ा नहीं होने के साथ ही हृदयाघात, अल्सर आदि शारीरिक रोगों के दुःख भी नहीं होते हैं।
• ग्रन्थकार जिनभद्र क्षमाश्रमण ग्रन्थ का उपसंहार करते हुए ग्रन्थ के महत्त्व तथा ग्रन्थ प्रमाण का निर्देश करते हैं:
इय सव्वगुणाधाणं दिट्ठादिट्ठासुहसाहणं झाणं। सुपसत्थं सद्धेयं नेयं झेयं च निच्चंपि ।।106 ।। पंचत्तुरेण गाहासएण झाणस्स यं (ज) समक्खायं। जिणभदखमासमणेहिं कम्मविसोहीकरणं जइणो ।।107 ।। इस प्रकार ध्यान सभी गुणों का आधार है तथा दृष्ट और अदृष्ट सुखों का साधन है, अतिशय प्रशस्त है, श्रद्धेय है, ध्येय है, ज्ञेय है और उसका चिन्तन करना चाहिए।
ध्यानशतक 123
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