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________________ व्याख्या : जिस प्रकार विशोषण औषध विधि में पुराने रोग को सुखा देने वाली लंघन अथवा विरेचन औषध विधि में पुराने रोग के कारणभूत रोगाणुओं या मल को बाहर निकाल देने वाली औषधियों के प्रयोग से उस रोग का उपचार कर दिया जाता है उसी प्रकार ध्यान और उपवास आदि के विधान से कर्मरूप रोग को शान्त कर दिया जाता है। ध्यान अतियोग द्वारा चञ्चल चित्तवृत्तियों को स्थिर करके भी कर्मों के संस्कार मिटा दिये जाते हैं तथा तपपूर्वक निर्जरा के द्वारा भी कर्माशय के प्रभाव को समाप्त कर दिया जाता है। • ध्यान से सञ्चित कर्मक्षय होने का निरूपण करते हैं: जह चिरसंचियमिंधणमनलो पवणसहिओ दुयं दहइ। तह कम्मेंधणममियं खणेण झाणाणलो डहइ ।। 102 ।। जिस प्रकार वायु से प्रेरित अग्नि दीर्घकाल से संचित ईंधन को शीघ्र ही जला देती है उसी प्रकार ध्यानरूप अग्नि दीर्घकाल के संचित कर्मरूप ईंधन को क्षणभर में भस्म कर देती है। व्याख्या : जिस वायु के तीव्र वेग से चलने पर अग्नि आदि भयंकर रूप ले लेती है और शीघ्र ही ईंधन को जला देती है, उसी प्रकार ध्यान में संवेग (वैराग्य की तीव्रता) से घाति कर्म रूपी ईंधन शीघ्र जलकर नष्ट हो जाता है। कारण कि वैराग्य के वेग की तीव्रता राग को भस्म कर वीतराग की उपलब्धि करा देती है। • ध्यान में कर्मों को विलीन करने की सामर्थ्य है: जह वा घणसंघाया खणेण पवणाहया विलिज्जंति। झाण-पवणावहूया तह कम्म-घणा विलिज्जति ।। 103 ।। जिस प्रकार पवन से आहत बादलों का समूह क्षण-भर में विलीन हो जाता है, उसी प्रकार ध्यानरूपी वायु से अवधूत अर्थात् विघटित होकर कर्मरूपी मेघ भी विलीन हो जाते हैं क्षणभर में नष्ट हो जाते हैं। व्याख्या : जिस प्रकार पवन के तीव्र वेग से मेघ क्षणभर में विलीन हो जाते हैं, इसी प्रकार संवेग (वैराग्य) के तीव्र प्रवाह से राग, रागजनित कर्म-संस्कार क्षण-भर (अन्तर्मुहूर्त) में नष्ट हो जाते हैं। 122 ध्यानशतक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001216
Book TitleDhyanashatak
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorKanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Dhyan
File Size7 MB
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