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________________ अशुभानुप्रेक्षा ____ अशुभत्व का विचार अशुभानुप्रेक्षा है। विकार मात्र अशुभ हैं, क्योंकि विकार प्राणी के लिये अहितकर ही होते हैं, हितकर नहीं। नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देवगति व इनकी पर्यायें एवं तन, मन, धन आदि सर्व संयोगजनित अवस्थाएँ विकार की प्रतीक एवं अहितकर हैं। प्राणी का वास्तविक हित इन से अतीत अवस्था में है। अतः इन सर्व पर्यायों को अशुभ व दु:ख रूप समझकर पृथक् होने में ही आत्म-हित है। ऐसी भावना से 'पृथक्त्व-वितर्क-सविचार' सबल बनता है और ध्यान में शुद्धता आती है। अनन्तवर्तितानुप्रेक्षा ___ अनन्तत्व का विचार करना, अनन्त में विचरण करना अनन्तवर्तितानुप्रेक्षा है। अनुप्रेक्षा की दृष्टि से अनंतत्व के दो प्रकार किये जा सकते हैं-पराश्रित और स्वाश्रित । पराश्रित अनंत में साधक पर से संबंधित द्रव्य, क्षेत्र, काल, आदि पर विचार करता है। वह द्रव्य की दृष्टि से जीवों की अनंतानंत राशि को देखता है तो उसे लगता है कि विश्व में विद्यमान अगणित धनवान्, बलवान्, विद्वान्, गुणवान्, सत्तावान् व्यक्तियों में आज उसका कोई स्थान ही नहीं है, तथापि वह स्वयं भी पहले अनंत बार इनको व देवगति के उच्च सुखों को भी भोग चुका है परन्तु फिर भी दुःख से मुक्ति नहीं मिली। जब वह क्षेत्र की अनंतता पर दृष्टि डालता है तो उसे लगता है कि आकाश में स्थित अनंत ग्रह-नक्षत्रों के समक्ष जिस भूमि व भवन का वह स्वामी है उसका कोई महत्त्व ही नहीं है। साथ ही वह सोचता है कि सारे संसार में एक तिल रखे जितना भी क्षेत्र ऐसा नहीं छोड़ा जहाँ उसने जन्म-मरण का दुःख न पाया हो । काल की दृष्टि से देखने पर भूत-भविष्यत् के अनंत काल में वर्तमान जीवनकाल का कहीं अता-पता ही नहीं चलता तथा इतने अनंत काल में दुःख ही पाया, सुख कभी नहीं पाया। पर्याय दृष्टि से देखता है तो उसे लगता है कि उसने अनंतानंत भव धारण कर लिये हैं और अब भी भवभ्रमण का चक्र चल रहा है जिसका अंत कहीं नहीं आ रहा है। इस प्रकार पर से संबंधित अनंतता पर विचार करने से स्पष्ट बोध होता है कि उसको प्राप्त भौतिक 'वस्तुओं व शक्तियों का अनंत में प्रथम तो कोई स्थान, मान या मूल्य ही नहीं है। यदि है भी तो वे कार्यकारी व कल्याणकारी नहीं हैं, दुःख का ही हेतु हैं। पराश्रित अनंत के साथ अपनत्व करके अनंत काल से अनंत दु:ख उठाया है। अतः पराश्रित अनंत से संबंध-विच्छेद में ही आत्महित निहित है। अनंतानुवर्ती अनुप्रेक्षा का यह रूप 'पृथक्त्व-वितर्क-सविचार' ध्यान को दृढ़ करता है। ध्यानशतक 115 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001216
Book TitleDhyanashatak
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorKanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Dhyan
File Size7 MB
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