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तथा कर्मों की निर्जरा का हेतु होने से भी (मानव) भव में स्थित जीव के ध्यान कहा है तथा (यहाँ ध्यान) शब्द बहुत अर्थवाला होने से जिनेश्वर भगवान् ने आगम में इसे ध्यान कहा है। • शुक्ल ध्यान का उपसंहार करते हैं:
सुक्कज्झाणसुभावियचित्तो चिंतेइ झाणविरमेऽवि । णिययमणुप्पेहाओ चत्तारि चरित्तसंपन्नो ।।88 ।। आसवदारावाए तह संसारासुहाणुभावं च।
भवसंताणमणन्तं वत्थूणं विपरिणामं च ।। 89 ।। शुक्ल ध्यान से समाहित (सुभावित) चित्त वाला, चारित्र से युक्त ध्याता ध्यान के समापन के उपरान्त भी सदा निम्न चार अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करता है:
1. आसवों के अपाय का चिन्तन 2. संसार के अशुभ-अनुभाव का चिन्तन 3. भवसन्तति की अनन्तता का चिन्तन
4. वस्तुओं के विपरिणाम का चिन्तन । व्याख्या :
शुक्ल ध्यान से सुभावित चित्त ध्यान से उपरत होने पर भी निश्चित रूप से चार अनुप्रेक्षाओं (चारित्र चिन्तन) से सम्पन्न होता है अर्थात् शुक्ल ध्यानी चार अनुप्रेक्षा भावना-युक्त होता है यथाः- 1. अपायानुप्रेक्षा, 2. अशुभानुप्रेक्षा, 3. अनंतवर्तितानुप्रेक्षा और 4. विपरिणामानुप्रेक्षा। अपायानुप्रेक्षा ___ बंध के कारणों को दोषजनक, आपत्तिजनक सोचना अपायानुप्रेक्षा है। बंध के कारण आस्रव हैं। पर-पदार्थों में अपनत्व भाव व सुख-दुख की मान्यता से मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभयोग-इन आसवों की उत्पत्ति होती है, जिनके परिणामस्वरूप प्राणी दुःख पाता व भव-भ्रमण करता है। अतः दुख निवारण व भव संतति का अंत करने हेतु आस्रव से अपगमन अर्थात् त्याग करना आवश्यक है। आस्रव त्याग तब ही संभव है जब पदार्थों के प्रति अपनत्व भाव छूटकर पृथकत्व भाव प्रकट हो। अतः अपायानुप्रेक्षा से शुक्ल ध्यान का प्रथम चरण 'पृथक्त्व-वितर्क-सविचार' दृढ़ होता है जो ध्यान की शुद्धि-वृद्धि में सहायक है।
114 ध्यानशतक
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