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प्रस्तावना
'इति श्रीलाडवागडीयपण्डिताचार्यश्रीमन्नरेन्द्रसेन-विरचिते रत्नत्रयपूजाविधाने दर्शनपूजा समाप्ता।"
सिद्धान्तसारसंग्रहके कर्ता नरेन्द्रसेनकी भी ‘पण्डिताचार्य' उपाधि हम ऊपर देख चुके हैं और ये रत्नत्रयपूजाके कर्ता नरेन्द्रसेन भी अपनेको 'पण्डिताचार्य' प्रकट करते हैं । तथा ये दोनों ही विद्वान् 'लाडवागडगच्छ' में हुए हैं । इससे इन दोनोंकी एकताको भ्रान्ति हो सकती हैं । पर ये दोनों विद्वान् एक नहीं हैं । सिद्धान्तसारसंग्रहके कर्ता नरेन्द्रसेनने अपनी गुरुपरम्परा स्पष्ट दी है और गुणसेनको उन्होंने अपना गुरु बतलाया है । परन्तु रत्नत्रयपूजाके कर्ताने न अपनी गुरुपरम्परा दी है और न गुणसेनको अपना गुरु बतलाया है। दोनोंके अभिन्न होनेकी हालतमें दोनोंकी गुरुपरम्परा एक होनी चाहिए। यथार्थमें रत्नत्रयपूजाके कर्ता नरेन्द्रसेन सिद्धान्तसारसंग्रहके कर्ता नरेन्द्रसेनसे काफी उत्तरवर्ती हैं और इन्हें पद्मसेनका शिष्य तथा चौथे एवं पांचवें नम्बरके नरेन्द्रसेनोंसे अभिन्न होना चाहिए। ये तीनों नरेन्द्रसेन एक ही 'लाडवागडगच्छ' में और एक ही कालमें हुए हैं। नरेन्द्रसेन पद्मसेनके शिष्य थे और उनके अन्वयमें हुए, किन्तु उनके पट्टाधिकारी त्रिभुवनकोति थे और त्रिभुवनकीर्तिके पट्टपर धर्मकोति बैठे थे। इन धर्मकीर्तिके उपदेशसे वि० सं० १४३१ में केशरियाजीके एक मन्दिरकी प्रतिष्ठा हुई थी तथा ये धर्मकीर्ति पद्मसेनकी दूसरी पीढ़ोमें हुए हैं। अतः धर्मकीर्तिके समय वि० सं० १४३१ में से लगभग ५० वर्ष कम कर दिये जानेपर पद्मसेनका समय वि० सं० १३८१ सम्भावित होता है और प्रायः यही काल उनके शिष्य नरेन्द्रसेनका बैठता है। अतः सिद्धान्त सारसंग्रहके कर्ता नरेन्द्रसेन (वि० सं० ११५५-११८० ) से २००-२२५ वर्ष बाद होनेवाले 'रत्नत्रयपूजा' के कर्ता नरेन्द्रसेन ( वि० सं० १३८१) उनसे बिलकुल
१. देखिए, भ० संप्र० पृष्ठ २५३, लेखाङ्क ६३३ । २. ३. ४. देखिए, भ० संप्र० पृष्ठ २५३, लेखाङ्क ६३५,६३६,६३८ ।
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