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________________ प्रस्तावना ४५ हेतु कालात्ययापदिष्ट है, क्योंकि 'विधि ही वस्तु है' यह पक्ष प्रत्यक्षबाधित है। प्रत्यक्षसे निषेध भी प्रतीत होता है। प्रतिभासमानत्व हेतु भी सदोष है, क्योंकि ग्राम, उद्यान आदि पदार्थ प्रतिभासके विषय है, स्वयं प्रतिभास नहीं हैं। जैसे दीपक आदि प्रकाशसे प्रकाशित होनेवाले घटादि पदार्थ प्रकाशसे भिन्न अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखते हैं और उनमें प्रकाश्य-प्रकाशकभाव है उसी तरह प्रतिभास तथा प्रतिभास्य-पदार्थों में प्रतिभास्य-प्रतिभासकभाव है। दोनोंकी एक सत्ता कदापि नहीं हो सकती। आगम-वाक्योंसे ब्रह्मकी सिद्धि माननेपर यह प्रश्न होगा कि वे आगमवाक्य ब्रह्मसे भिन्न हैं या अभिन्न ? यदि भिन्न हैं तो अद्वैत कहाँ रहा ? और यदि अभिन्न हैं तो ब्रह्मकी तरह वे आगम-वाक्य भी साध्य-कोटिमें आ जायेंगे। यदि कहा जाय कि यह सब अविद्या-जन्य व्यवहार है और अविद्या अपरमार्थ है-वह परमार्थ अद्वैत ब्रह्ममें कोई बाधा नहीं पहुंचा सकती, तो यह कहना संगत प्रतीत नहीं होता, क्योंकि अविद्या जब अपरमार्थ है तो उसकी आड़ लेकर अद्वैत ब्रह्मका संरक्षण नहीं किया जा सकता। यतः प्रत्यक्ष, अनुमान और आगमवाक्य ये सब यदि अपरमार्थ हैं तो उनसे होने वाली एकमात्र ब्रह्मको सिद्धि भी अपरमार्थ ही होगी। इसके साथ ही यह प्रश्न भी होता है कि वह अविद्या ब्रह्मसे भिन्न है या अभिन्न ? यदि भिन्न है तो द्वैत प्रसक्त होता है। और यदि अभिन्न है तो वह भी ब्रह्मकी तरह परमार्थ या उसकी तरह ब्रह्म भी अपरमार्थ सिद्ध होगा। अविद्याको भिन्नाभिन्नादि विचारोंसे रहित मानना भी उचित नहीं है, क्योंकि इतरेतराभाव आदिकी तरह अवस्तु होनेपर भी वह भिन्नाभिन्नादि विचारोंका विषय हो सकती है। एक बात और है। जब ब्रह्मसे भिन्न या अभिन्न वास्तविक अविद्या है ही नहीं, तो आत्मश्रवण, मनन और निदिध्यासनद्वारा किसकी निवृत्ति की जाती है ? __'सब प्राणी एक हैं, सबमें ब्रह्मका अंश है, सबको एक दृष्टिसे देखना चाहिए।' आदि एक प्रकारको भावना है और तत्त्वज्ञान दूसरी बात है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001146
Book TitlePramanprameykalika
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages160
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size7 MB
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