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प्रमाणप्रमेयकलिका जैन विद्वानोंने इस ब्रह्मवादपर विस्तृत विचार किया है और उसे युक्तिकी कसौटीपर रखकर उसका परीक्षण किया है । एक, नित्य, निरंश
जैनों द्वारा और व्यापक परमब्रह्मके स्वीकार करनेपर सारी ब्रह्मवादपर लोक-व्यवस्था समाप्त हो जाती है। लोकमें नाना _ विचार क्रियाओं और नाना कारकोंका भेद स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। यह भेद अद्वैतैकान्तमें कैसे बन सकता है ? एक ही वस्तु स्वयं उत्पाद्य और उत्पादक दोनों नहीं बन सकती है। पुण्य और पाप ये दो कर्म, सुख और दुःख ये उनके दो फल, इहलोक और परलोक ये दो लोक, विद्या और अविद्या तथा बन्ध और मोक्ष ये द्वैत-युगल अद्वैतवादमें असम्भव है।
इसके अतिरिक्त यह प्रश्न होता है कि अद्वैत ब्रह्म प्रमाणसिद्ध है या नहीं ? यदि प्रमाणसिद्ध है तो प्रमाणसे सिद्ध करनेसे पूर्व वह साध्य-कोटिमें स्थित रहेगा और प्रमाण साधन-कोटिमें, और उस हालतमें साध्य-साधनका द्वैत अवश्य मानना पड़ेगा। उसे माने बिना अद्वैत ब्रह्मकी सिद्धि नहीं हो सकती है। यदि अद्वैत ब्रह्म प्रमाणसे सिद्ध नहीं है, फिर भी वह स्वीकार किया जाता है तो द्वैतवादियोंका द्वैत भी क्यों न माना जाय।
प्रत्यक्षसे जो विधिको प्रतीति कही गयी है और विधिको हो ब्रह्म बतलाया गया है वह भी युक्त प्रतीत नहीं होता, क्योंकि प्रत्यक्षसे जहां 'घटः सन्, पटः सन्' इस तरह घट-पटादिकी सत्ता प्रतीत होती है वहाँ घटसे भिन्न पट और पटसे भिन्न घटकी भी प्रतीति होती है। विना भेदके अभेद स्वप्नमें भी प्रतीत नहीं होता । अतः प्रत्यक्ष सत्ताको तरह असत्ताको भी विषय करता है। और तब प्रत्यक्ष सत्ता-असत्ताद्वैतका साधक सिद्ध होता है-अद्वैतका साधक नहीं।
अनुमानसे ब्रह्मको सिद्धि करनेपर पक्ष, हेतु, दृष्टान्त और साध्यका भेद अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा, क्योंकि उनके बिना अनुमान नहीं बनता है और उस दशामें वहीं द्वैतका प्रसंग आता है। ऊपर जिन दो अनुमानोंका उल्लेख किया गया है वे दोनों अनुमान भो निर्दोष नहीं हैं। प्रमेयत्व
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