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प्रमाणप्रमेयकलिका कि जिसके द्वारा अर्थप्रकाशन होता है वह प्रमाण है और अर्थप्रकाशन ज्ञाताके व्यापार द्वारा होता है। जबतक ज्ञाता वस्तुको जानने के लिए व्यापार अर्थात प्रवत्ति नहीं करता तबतक उसे वस्तुका ज्ञान नहीं होता। यह देखा जाता है कि वस्तु, इन्द्रियां और ज्ञाता ये तीनों विद्यमान रहते हैं, पर वस्तुका ज्ञान नहीं होता। किन्तु ज्ञाता जब व्यापार करता है तब उसका ज्ञान अवश्य होता है। अतः ज्ञाताके व्यापारको प्रमाण मानना चाहिए।
प्रस्तुत ग्रन्थमें इसकी मीमांसा करते हुए कहा गया है कि ज्ञाताका व्यापार ज्ञातासे भिन्न है अथवा अभिन्न ? यदि भिन्न है तो उनमें-ज्ञाता और व्यापारमें सम्बन्ध सम्भव नहीं है। यदि भिन्नोंमें सम्बन्ध स्वीकार किया जाय तो जिस प्रकार भिन्न ज्ञाताके साथ भिन्न व्यापारका सम्बन्ध हो जाता है उसी प्रकार पदार्थान्तरके साथ भो व्यापारका सम्बन्ध सम्भव है, क्योंकि भिन्नता दोनों में समान है। और यदि किसी प्रकार यह मान भी लिया जाय कि ज्ञाताके साथ ही व्यापारका सम्बन्ध है, पदार्थान्तरके साथ नहीं, क्योंकि वह ज्ञाताका ही व्यापार है, पदार्थान्तरका नहीं, तो यह बतलाना चाहिए कि वह व्यापार क्रियात्मक है या अक्रियात्मक ? यदि क्रियात्मक है तो वह क्रिया उस ( व्यापार ) से भिन्न है या अभिन्न ? यदि भिन्न है तो भिन्न पक्ष-सम्बन्धी पहले कहा गया दोष पुनः आता है। यदि अभिन्न है तो या तो व्यापारमात्र रहेगा या क्रियामात्र, क्योंकि अभेदमें दो से कोई एक ही रहता है, दूसरा उसीके अनुरूप हो जाता है। यदि वह व्यापार अक्रियात्मक है तो वह व्यापार कैसे ? क्योंकि व्यापार तो क्रियारूप होता है, अक्रियारूप नहीं । अतः व्यापार ज्ञातासे भिन्न तो नहीं बनता। अभिन्न भी वह सम्भव नहीं है, क्योंकि प्रथम तो दोनों एक हो जायेंगे-'ज्ञाता और ज्ञातृव्यापार' यह भेद फिर नहीं हो सकता। दूसरे, प्रभाकरने उसे ज्ञातासे अभिन्न स्वीकार भी नहीं किया है ।
इसके अतिरिक्त अनेक प्रश्न और उठते हैं। प्रभाकरसे पूछा जाता है
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