________________
सम्पादकीय
३३.
इसकी देहलीको प्रतिपरसे प्रतिलिपि करायी गयी है। जैसा कि इसके अन्तिम समाप्ति - पुष्पिका- वाक्यसे' भी प्रकट है । और जिसमें इस प्रतिके लेखनका भी समय 'संवत् १९९१' दिया गया है । यह प्रति भवनके तत्कालीन अध्यक्ष प्रो० नेमिचन्द्रजी ज्योतिषाचार्य, एम. ए. आरा-द्वारा प्राप्त हुई थी और अब उसका परिचय मेरी प्रेरणा पाकर भवनके वर्तमान कार्यवाहक पं० ब्रह्मदत्तजी मिश्रने भेजा है ।
इन दो प्रतियों के अतिरिक्त हमें और कोई प्रति प्रयत्न करनेपर भी उपलब्ध नहीं हो सकी ।
संशोधन और त्रुटित पाठ-पूर्ति :
यद्यपि दोनों प्रतियाँ अधिक प्राचीन नहीं हैं, फिर भी अनेक स्थलों पर काफी अशुद्ध पाठ मिले हैं और कई स्थानोंपर वे त्रुटित भी प्रतीत हुए हैं । रचना - शैथिल्य भी हमें अनेक जगह खटका है । प्रस्तुत संस्करणमें हमने उन अशुद्ध पाठोंको शुद्ध तथा त्रुटितोंको पूर्ण करनेका यथासाध्य प्रयत्न किया है । मूलकारकी कृतिको हमने ज्यों-का-त्यों रहने दिया है । हाँ, जहाँ कुछ असंगति या न्यूनता जान पड़ी है वहाँ अपनी ओरसे सन्दर्भानुकूल ] ऐसे कोष्टक में पाठोंका निक्षेप करके उसे दूर करनेका आंशिक प्रयत्न अवश्य किया है । यहाँ उदाहरणके लिए उन कतिपय अशुद्ध तथा त्रुटित पाठों को उनके शुद्ध एवं पूर्ण रूपोंके साथ दिया जाता है ।
[
अशुद्ध
उच्यन्ताम्
निवर्तेत
शुद्ध
उच्यताम् निवर्तेते
अचेतनोऽर्थः करणम्
अचेतनोऽर्थकरणं
प्रमाणप्रपञ्चता
प्रकृति महानिति
१. देखिए, इसी पुस्तकके पृष्ट ४६का पाद-टिप्पण |
Jain Education International
प्रामाण्यप्रपञ्चता
प्रकृतेर्महानिति
For Private & Personal Use Only
पृष्ठ
१
७
८
www.jainelibrary.org