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________________ दीवसागरपण्णत्तिपइण्णयं लगता है कि राजप्रश्नीयसत्र का वह अंश जिसमें जिनप्रतिमाओं के वन्दनपूजन आदि का विवरण है, वह द्वीपसागरप्रज्ञप्ति से किंचित परवर्ती रहा होगा। सामान्यतया हिन्दू परम्परा में मध्यलोक के सन्दर्भ में सप्त द्वीप और सप्त सागरों का विवरण उपलब्ध होता है किन्तु जेन परम्परा में मध्यलोक की इस सीमितता की आलोचना की गई है और यह कहा गया है कि जो लोग मध्यलोक को सप्त द्वीप और सप्त सागरों तक सीमित करते हैं, वे भ्रान्त हैं। जैन परम्परा को मान्यता तो यह है कि मेरुपर्वत और जम्बूद्वीप को लेकर वलयाकार में एक-दूसरे को घेरते हुए असंख्यात द्वीपसागर हैं । जैन परम्परा में जम्बूद्वीप और लवणसमुद्र के विवरण के पश्चात् धातकीखण्ड, कालोदधिसमुद्र, पुष्करवरद्वीप, पुष्करवरसमुद्र उसके पश्चात् नलिनोदक सागर, सुरारस सागर, क्षीरजल सागर, घृतसागर तथा क्षोदरस सागर आदि को घेरे हुए नन्दीश्वर द्वीप बताया जाता है। इससे स्पष्ट होता है कि जैनों ने मध्यलोक के द्वीप-समुद्रों के विवरण में यद्यपि हिन्दू परम्परा की मान्यता से कुछ आगे बढ़ने का प्रयत्न किया है तथापि दो-चार द्वीप-सागरों का विवरण देने के पश्चात् उन्हें भी विराम ही धारण करना पड़ा। प्रस्तुत प्रकीर्णक में मध्यलोक के द्वीप-सागरों का जो विवरण उल्लिखित है, वह आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से कितना संगत है और कितना परम्परागत मान्यताओं पर आधारित है, इसकी चर्चा हमने अपने स्वतन्त्र लेख 'जैन सृष्टि शास्त्र और आधुनिक विज्ञान' में की है। यह लेख सुरेन्द्रमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ में प्रकाशित हो रहा है। इस दृष्टि से तुलनात्मक अध्ययन करने की रूचि रखने वाले पाठक उसे वहाँ देख सकते हैं। द्वीपसागरप्रज्ञप्ति प्रकीर्णक का प्रारम्भ मानुषोत्तर पर्वत से ही होता है। इसके प्रारम्भ में ग्रन्थ निर्माण की प्रतिज्ञा अथवा मंगल स्वरूप कुछ भी नहीं कहा गया हैं इससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह ग्रन्थ किसी विस्तृत ग्रन्थ का एक अंश मात्र है तथा इसका पूर्व भाग संभवतः विलुप्त हो गया है । प्रस्तुत भूमिका में चर्चित ये सभी विषय ऐसे हैं जिन पर अन्तिम रूप से कुछ कहने का दावा करना आग्रहपूर्ण और मिथ्या होगा। विद्वानों से अपेक्षा है कि इस दिशा में अपने चिन्तन से हमें लाभान्ति करें। वाराणसी सागरमल जैन २ अगस्त, १९९३ सुरेश सिसोदिया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001141
Book TitleDivsagar Pannatti Painnayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Suresh Sisodiya, Sagarmal Jain
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1993
Total Pages142
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_anykaalin
File Size6 MB
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