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________________ भूमिका ७५ विषयवस्तु अधिक विस्तारपूर्वक उल्लिखित है । विषयवस्तु के विकासक्रम के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि द्वीपसागरप्रज्ञप्ति की रचना अंग और उपांग साहित्य के इन विषयों से सम्बन्धित ग्रन्थों के बाद ही हुई है। फिर भी जैसा कि हम पूर्व में भी सूचित कर चुके हैं; यह ग्रन्थ आगमों की अन्तिम वाचना (वि. नि० सं०९८०) के पूर्व अस्तित्व में आ चुका था। प्राकृत भाषा में पद्यरूप में निर्मित लोकविवेचन से सम्बन्धित ग्रन्थों में आज हमारे सामने द्वीपसागरप्रज्ञप्ति और त्रिलोकप्रज्ञप्ति दोनों ही ग्रन्थ उपलब्ध हैं, प्राकृत लोकविभाग आज अनुपलब्ध है। वर्तमान में जहाँ द्वीपसागरप्रज्ञप्ति श्वेताम्बर परम्परा में मान्य है वहीं त्रिलोकप्रज्ञप्ति दिगम्बर परम्परा में मान्य है । त्रिलोकप्रज्ञप्ति में प्रक्षिप्तों की अधिकता के कारण उसके रचनाकाल का पूर्ण निश्चय एक विवादास्पद प्रश्न है, किन्तु विषयसामग्री की व्यापकता आदि को देखकर यह अनुमान किया जा सकता है कि यह ग्रन्थ द्वीपसागरप्रज्ञप्ति के बाद कभी रचा गया है। वैसे भी यदि हम देखें तो त्रिलोकप्रज्ञप्ति का चतुर्थ अधिकार (अध्याय) द्वीपसागरप्रज्ञप्ति नाम से ही है। इस आधार पर भी यह कहा जा सकता है कि त्रिलोकप्रज्ञप्ति के रचनाकार के समक्ष यह ग्रन्थ अवश्य उपस्थित रहा है। त्रिलोकप्रज्ञप्ति के प्रक्षिप्त अंशों को अलग करने के पश्चात् उसका जो स्वरूप निर्धारित होता है, वह मूलतः यापनीयों का रहा है। क्योंकि यापनीय ग्रन्थों की यह विशेषता रही है कि वे अपने समय में उपस्थित आचार्यों की विभिन्न मान्यताओं का निर्देश करते हैं और ऐसा निर्देश त्रिलोकप्रज्ञप्ति में पाया जाता है। यद्यपि यह सब कहना एक स्वतन्त्र निबन्ध का विषय है और यह चर्चा यहाँ अधिक प्रासंगिक भी नहीं है। यहाँ तो हम इतना हो बताना चाहते हैं कि द्वीपसागरप्रज्ञप्ति अपेक्षाकृत संक्षिप्त और उस काल की रचना है जब आगम साहित्य को मुखाग्रही रखा जाता था जबकि त्रिलोकप्रज्ञप्ति एक विकसित और परवर्ती रचना है। प्रस्तुत कृति में जिनअस्थियों, जिनप्रतिमाओं, जिनमंदिरों और चैत्यों आदि के स्पष्ट उल्लेख देखे जाते हैं इससे यह फलित होता है कि यह ग्रन्थ जैन परम्परा में सभी निर्मित हुआ जब उसमें जिनप्रतिमाओं और जिनमंदिरों का निर्माण होना प्रारम्भ हो चुका होगा। राजप्रश्नीयसूत्र और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति के तुलनात्मक विवेचन में हम देखते हैं कि जहाँ द्वीपसागरप्रज्ञप्ति में जिनअस्थियों, जिनप्रतिमाओं और जिनमंदिरों का विवरण मात्र दिया गया है, वहीं राजप्रश्नीयसत्र में सर्याभदेव के द्वारा उनके वन्दन-पूजन आदि करने का भी उल्लेख हुआ है। इससे ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001141
Book TitleDivsagar Pannatti Painnayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Suresh Sisodiya, Sagarmal Jain
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1993
Total Pages142
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_anykaalin
File Size6 MB
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