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भूमिका उसमें कोई प्रक्षेप नहीं हुआ है । ऐसी स्थिति में द्वीपसागरप्रज्ञप्ति का रचनाकाल ईस्वी सन् की प्रथम-द्वितीय शताब्दी भी माना जा सकता है। यह अवधि इस ग्रन्थ के रचनाकाल की उच्चतम सीमा है। इस प्रकार द्वीपसागरप्रज्ञप्ति का रचनाकाल ई० सन् २ शती से ५ वीं शती के मध्य ही कहीं निर्धारित होता है।
जहाँ तक इस ग्रन्थ की विषयवस्तु का प्रश्न है वह भी अधिकांश रूप में स्थानांगसूत्र, सर्यप्रज्ञप्ति, जीवाजीवाभिगमसूत्र तथा राजप्रश्नीय सूत्र आदि आगम ग्रन्थों में मिलती है। अतः यह ग्रन्थ इन ग्रन्थों का समकालीन या इनसे किचित परवर्ती होना चाहिए। उल्लेखनीय है कि गद्य बागमों की विषयवस्तु को सरलता पूर्वक याद करने की दृष्टि से पद्य रूप में संक्षिप्त संग्रहणी गाथाएं बनाई गई थीं। किन्तु संग्रहणी गाथाएँ भी लगभग ईस्वी० सन् की प्रथम शताब्दी में बनना प्रारम्भ हो चुकी थीं। द्वीपसागरप्रज्ञप्ति के नाम के साथ 'संग्रहणी गाथाएँ' शब्द जुड़ा हुआ है। इससे ऐसा लगता है कि आगमों में द्वीप-समुद्रों संबंधी जो विवरण थे, उनके आधार पर संग्रहणी गाथाएँ बनीं और उन गाथाओं को संकलित कर इस ग्रन्थ का निर्माण किया गया होगा। इस स्थिति में भी इस ग्रन्थ का रचनाकाल ई० सन् प्रथम शताब्दी से पाँचवीं शती के मध्य ही निर्धारित होता है। ज्ञातव्य है कि वर्तमान श्वेताम्बर मान्य आगमों में उनके •सम्पादन के समय अनेक संग्रहणी गाथाएँ डाल दी गई हैं।
पुनः प्रस्तुत ग्रन्थ में जिनमंदिरों और जिनप्रतिमाओं का सुव्यवस्थित उल्लेख प्राप्त होता हैं । जिन प्रतिमाओं के निर्माण के प्राचीनतम उल्लेख हमें नन्दों के शासनकाल (ई० पू० ४ थी )शती से ही मिलने लगते हैं। सम्राट खारवेल ने अपने हत्थीगुम्फा अभिलेख में यह सूचित किया है कि वह नन्दराजा द्वारा ले जाई गई कलिंगजिन की प्रतिमा को वापस लाया पा। मौर्यकाल (ई० पू० ३ री शती) की तो जिनप्रतिमाएँ भी आज मिलती हैं। ईस्वी सन् प्रथम-द्वितीय शताब्दी से तो मथुरा में निर्मित जिनमदिरों और उनमें स्थापित जिनप्रतिमाओं के पुरातात्विक अवशेष मिलने लगते हैं। अतः जिनमंदिरों और जिनप्रतिमाओं के उल्लेखों के आधार पर भी यह ग्रन्थ ईस्वी सन् की प्रथम-द्वितीय शताब्दी के आसपास का प्रतीत होता है। इन उपलब्ध सभी प्रमाणों के आधार पर निष्कर्ष
१. तिवारी, मारपिसाव-प्रतिमाविज्ञान, पृष्ठ १७ ।
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