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प्रमेयरत्नमालायां
प्रत्ययश्च विवादापन्नः कश्चिदिति । सकलपदार्थग्रहणस्वभावत्वं नात्मनोऽसिद्धम्; चोदनातः सकलपदार्थपरिज्ञानस्यान्यथाऽयोगात्, अन्धस्येवाऽऽदर्शाद्रूपप्रतिपत्तेरिति । व्याप्तिज्ञानोत्पत्तिबलाच्चाशेषविषयज्ञानसम्भवः । केवलं वैशद्य विवादः, तत्र चावरणापगम एव कारणं रजोनीहाराद्यावृतार्थज्ञानस्येव तदपगम इति ।
प्रक्षीणप्रतिबन्धप्रत्ययत्वं कथमिति चेदुच्यते-दोषावरणे' क्वचिन्निमूलं प्रलयमुपवजत; प्रकृष्यमाणहानिकत्वात् । यस्य प्रकृष्यमाणहानिः स क्वचिन्नि
और बौद्ध एक ही हेतु का प्रयोग करते हैं। मीमांसक के प्रति यहाँ चार ही अवयवों का प्रयोग किया गया है। ___ आत्मा का समस्त पदार्थों का ग्रहण स्वभाव होना असिद्ध नहीं है। अन्यथा वेद वाक्य से समस्त पदार्थों का परिज्ञान नहीं हो सकेगा। जैसे कि अन्धे का दर्पण से भी अपने रूप का ज्ञान नहीं होता है। तात्पर्य यह कि मीमांसक ऐसा मानते हैं कि वेदवाक्य ( पुरुष विशेष को ) भूत, भविष्यत्, वर्तमान, सूक्ष्म, दूरवर्ती आदि सभी पदार्थों की जानकारी कराने में समर्थ है, ऐसा कहता हुआ मीमांसक समस्त पदार्थ को जानने का स्वभाव रखने वाला आत्मा नहीं मानता है तो वह स्वस्थ कैसे है ? मीमांसक मत में ज्ञान आत्मा से भिन्न नहीं है। कथञ्चित् भेद मानने पर दूसरा मत स्वीकार करने का प्रसङ्ग आयेगा । अतः आत्मा का ज्ञान स्वभावी होना सिद्ध है। आत्मा को समस्त पदार्थों का ज्ञानस्वभावी न मानों तो समस्त पदार्थों की जानकारी सम्भव नहीं है। वेद से समस्त पदार्थों का ज्ञातापन युक्त नहीं है।
जो सत्स्वरूप है, वह सब अनेकान्तात्मक है, इत्यादि व्याप्ति के ज्ञान से समस्त विषयों ( अग्नि आदि ) का ज्ञान सम्भव है, अन्यथा अनियत दिशा तथा स्थान में स्थित अग्नि का परिज्ञान कैसे उत्पन्न हो सकता है। केवल वैशद्य में हम दोनों का विवाद है, उसमें आवरण का अभाव ही कारण है। जैसे रज और नीहार (बर्फ) आदि से आवृत्त पदार्थ का स्पष्ट ज्ञान उसके आवरण दूर होने पर होता है ।
शङ्का-ज्ञान के प्रतिबन्धक समस्त कारण कैसे क्षोण हो सकते हैं ?
समाधान-दोष और आबरण रूप भाव तथा द्रव्य कर्म कहीं पर निमूल रूप से विनाश को प्राप्त होते हैं, क्योंकि इनकी बढ़ती हुई चरम सीमा को प्राप्त हानि देखी जातो है। जिसकी प्रकृष्यमाण हानि होती है, १. भावद्रव्यकर्मणी।
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